रामनगर। उत्तराखंड में संपन्न हुए त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों ने इस बार वह दृश्य दिखा दिए, जो आमतौर पर चुनावी नतीजों के बाद कम ही देखने को मिलते हैं। प्रदेश की राजनीति में इस बार परिणामों के बाद न कोई खामोशी दिखी, न ही कोई मायूसी का चेहरा। उल्टे, भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों ही अपने-अपने दफ्तरों में जश्न के माहौल में डूबी नजर आईं। जहां एक तरफ कांग्रेस भवन में मिठाइयों का वितरण हुआ, वहीं दूसरी ओर भाजपा कार्यालय में जीत का उल्लास आतिशबाजी और नाच-गाने के साथ प्रकट किया गया। नतीजों ने किसी एक पार्टी को स्पष्ट बढ़त नहीं दी, लेकिन दोनों ही दल इसे अपनी विजय के तौर पर प्रचारित करने में जुट गए। प्रदेश में पहली बार ऐसा हुआ जब दोनों ही प्रमुख दलों के कार्यालय एक साथ रौशन नजर आए, और दोनों ही अपने दावों को लेकर पूरी ऊर्जा के साथ मैदान में डटे दिखे।
राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो इस बार के नतीजे राजनीतिक समीकरणों के लिहाज से बेहद दिलचस्प साबित हुए हैं। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सूर्यकांत धस्माना ने स्पष्ट रूप से दावा किया कि इस बार के पंचायत चुनावों में कांग्रेस को भारी सफलता मिली है और भाजपा को अपने कई गढ़ों में करारी हार का सामना करना पड़ा है। उन्होंने तंज कसते हुए कहा कि अब यह समझना मुश्किल है कि भाजपा कार्यकर्ता किस खुशी में मिठाई बांट रहे हैं, जब कि उनके कई दिग्गज नेता और उनके परिजन खुद हार का मुंह देख चुके हैं। उन्होंने इन चुनावों को जनादेश की सीधी व्याख्या बताते हुए दावा किया कि उत्तराखंड की जनता ने भाजपा के असली चेहरे को समझ लिया है और अब वह बदलाव चाहती है, जो कांग्रेस के नेतृत्व में ही संभव हो सकता है।
कांग्रेस ने इस बार उन नेताओं को भी कटघरे में खड़ा किया, जिन्होंने पार्टी को छोड़कर भाजपा का दामन थामा था। पार्टी का दावा है कि ऐसे बागी नेताओं को इस बार की जनता ने वोट की चोट से जवाब दिया है। इसका उदाहरण देते हुए कांग्रेस ने सरिता आर्या के पुत्र रोहित आर्या की हार को जनता के असंतोष का परिणाम बताया। इसी तरह बदरीनाथ से विधायक रहे राजेंद्र भंडारी की पत्नी रजनी भंडारी, जो कभी जिला पंचायत अध्यक्ष रह चुकी हैं, उन्हें भी इस चुनाव में करारी शिकस्त मिली। कांग्रेस का कहना है कि जब नेता विचारधारा से भटकते हैं और सत्ता की चाटुकारिता में लग जाते हैं, तब जनता उन्हें उनके सही स्थान पर पहुंचा देती है। इन परिणामों ने न केवल कांग्रेस को ऊर्जा दी है, बल्कि उसे आगामी चुनावों के लिए एक मजबूत मनोबल भी प्रदान किया है।
प्रदेश में कई और ऐसे नाम भी इस चुनावी संघर्ष में हार का सामना कर चुके हैं, जिनका भाजपा से सीधा जुड़ाव रहा है। सौरभ बहुगुणा, जो पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के पुत्र हैं और वर्तमान में राज्य सरकार में मंत्री भी हैं, उनके क्षेत्र में भाजपा की छह सीटों पर हार ने कांग्रेस को अतिरिक्त हवा दी है। इसी प्रकार, लैंसडाउन से भाजपा विधायक दलीप रावत की पत्नी नीतू की हार को भी कांग्रेस बड़ी जीत के तौर पर पेश कर रही है। इतना ही नहीं, दिवंगत भाजपा नेता कैलाश गहतोड़ी के परिजनों और पूर्व विधायक पूरन सिंह की बेटी की हार को भी कांग्रेस ने भाजपा के राजनीतिक वर्चस्व की गिरावट का प्रमाण बताया है। वहीं, महेश जीना के बेटे करण के भी हारने की खबर ने कांग्रेस खेमे में अतिरिक्त उत्साह का संचार किया है।
हालांकि, यह स्पष्ट करना अब भी मुश्किल है कि त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों में असली बढ़त किस दल को मिली है। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि इन चुनावों में राष्ट्रीय दलों को चुनाव चिन्ह नहीं दिए जाते, और प्रत्याशी निर्दलीय रूप से मैदान में उतरते हैं। यही वह बिंदु है, जिसका फायदा उठाकर कांग्रेस और भाजपा दोनों ही दल स्वतंत्र रूप से चुनाव जीतने वाले उम्मीदवारों को अपनी विचारधारा से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। दोनों ही पार्टी कार्यालयों से ऐसे विजयी प्रत्याशियों की सूची जारी की जा रही है, जिन्हें वे अपने समर्थन वाला बता रहे हैं। इससे राजनीतिक भ्रम की स्थिति और गहरी हो गई है, लेकिन साथ ही इस बात की भी पुष्टि हो रही है कि अब पंचायत स्तर की राजनीति भी रणनीतिक स्तर पर काफी परिपक्व हो चुकी है।
इस पूरी चुनावी प्रक्रिया का अंतिम पड़ाव अभी बाकी है। क्षेत्र पंचायत अध्यक्ष और जिला पंचायत अध्यक्ष के चुनाव भविष्य में भाजपा और कांग्रेस के बीच असली ताकत की परीक्षा बनकर सामने आएंगे। कांग्रेस ने अभी से भाजपा पर आरोप लगाना शुरू कर दिया है कि वह जीते हुए निर्दलीय प्रत्याशियों को धनबल के जरिए खरीदने की कोशिश कर रही है। यह आरोप इसलिए भी गंभीर माना जा रहा है, क्योंकि प्रदेश की राजनीति में निर्दलीयों की भूमिका इस बार अत्यंत निर्णायक बन गई है। भाजपा और कांग्रेस दोनों ही इन निर्दलीयों को अपने खेमे में लाने के लिए हरसंभव प्रयास कर रहे हैं। यही वजह है कि राजनीतिक गहमागहमी अब भी चरम पर बनी हुई है और अंतिम तस्वीर तब ही स्पष्ट होगी जब प्रमुख पदों की चुनावी प्रक्रिया संपन्न हो जाएगी।
भाजपा की ओर से भी पूरी ताकत के साथ यह संदेश देने की कोशिश की गई है कि वह इस चुनाव में भी सबसे मजबूत पार्टी बनकर उभरी है। पार्टी कार्यालय में नेताओं ने डीजे की धुन पर नाचकर अपनी खुशी का इजहार किया और आतिशबाजी के जरिए विजय का उत्सव मनाया। खजान दास, जो भाजपा के वरिष्ठ विधायक हैं, उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने पहले ही हार मान ली थी, अब मिठाई बांटने का नाटक कर रही है। यह प्रतिक्रिया साफ दर्शाती है कि भाजपा किसी भी स्तर पर पीछे हटने के मूड में नहीं है और वह चुनावी रणनीति के हर पहलू में सक्रिय बनी हुई है।
कुल मिलाकर, उत्तराखंड के पंचायत चुनावों ने यह साबित कर दिया है कि यहां की राजनीति अब पुराने ढर्रे पर नहीं चल रही। नतीजों ने भले ही स्पष्ट तस्वीर न दी हो, लेकिन दोनों प्रमुख दलों की प्रतिक्रियाओं ने यह तय कर दिया है कि अब हर जीत की कहानी अकेली नहीं होती, बल्कि वह राजनीतिक गणित और प्रचार की ताकत से लिखी जाती है। इस बार के पंचायत चुनाव, भले ही स्थानीय स्तर पर हुए हों, लेकिन इसके राजनीतिक निहितार्थ राज्य के भविष्य की दिशा तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे।