रामनगर। उत्तराखंड में एक बार फिर प्रशासनिक लापरवाही ने सूबे के मुख्यमंत्री की सुरक्षा को सीधी चुनौती दे दी है। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के हालिया कुमाऊं दौरे के दौरान कॉर्बेट टाइगर रिजर्व की सैर एक गंभीर चूक का कारण बन गई, जो न केवल सुरक्षा मानकों की अनदेखी का सबूत है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि वन विभाग अपनी पुरानी गलतियों से कोई सीख लेने को तैयार नहीं है। छह जुलाई रविवार को जब मुख्यमंत्री कॉर्बेट क्षेत्र के भ्रमण पर थे, तब जिस जिप्सी में उन्हें बैठाकर पार्क घुमाया गया, वह न केवल तकनीकी रूप से अयोग्य थी, बल्कि उसका फिटनेस प्रमाण पत्र तक 22 अगस्त 2020 को समाप्त हो चुका था। इस वाहन की फिटनेस, बीमा और प्रदूषण जांच किसी भी मानक पर खरे नहीं उतरते थे। आश्चर्यजनक रूप से यह वही विभाग है जो वन्य जीव सुरक्षा और पर्यावरण की रक्षा का दायित्व संभालता है, लेकिन जब सवाल मुख्यमंत्री की सुरक्षा का आया, तो सब कुछ नजरअंदाज कर दिया गया।
जिस जिप्सी में मुख्यमंत्री धामी को सवारी कराई गई, उसकी स्थिति और कागजातों की अनदेखी कोई सामान्य लापरवाही नहीं बल्कि प्रशासनिक आपराधिकता के दायरे में आता है। दुर्भाग्यवश, इस वाहन की न केवल फिटनेस कई वर्षों पहले खत्म हो चुकी थी, बल्कि उसका बीमा और पॉल्यूशन सर्टिफिकेट भी अनुपलब्ध था। इतना ही नहीं, यह बात तब और भी चिंताजनक हो जाती है जब यह सामने आता है कि उक्त वाहन की सुरक्षा जांच या ऑडिट तक नहीं कराया गया था। यह गंभीरता इसलिए और भी बढ़ जाती है क्योंकि कॉर्बेट जैसे संवेदनशील क्षेत्र में मुख्यमंत्री की मौजूदगी किसी भी आपात स्थिति का संकेत बन सकती थी। यह सौभाग्य ही रहा कि यात्रा के दौरान कोई तकनीकी गड़बड़ी नहीं हुई, वरना एक बड़ी दुर्घटना को टाला नहीं जा सकता था।

इस पूरे प्रकरण में सबसे दुर्भाग्यजनक तथ्य यह है कि उक्त वाहन में कॉर्बेट टाइगर रिजर्व के निदेशक साकेत बडोला भी स्वयं मौजूद थे। बावजूद इसके, उन्होंने या किसी अन्य अधिकारी ने वाहन की स्थिति की जांच करने की आवश्यकता नहीं समझी। गौरतलब है कि साकेत बडोला वही अधिकारी हैं, जो पूर्व में राजाजी टाइगर रिजर्व में भी निदेशक के पद पर कार्यरत थे और वहां भी वाहन परीक्षण के दौरान हुए हादसे में छह वनकर्मियों की मौत हुई थी। उस दर्दनाक हादसे को अब लगभग डेढ़ वर्ष हो चुके हैं, लेकिन विभाग अब तक किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाया है। अब जब वही अधिकारी कॉर्बेट में भी उसी तरह की लापरवाही के केंद्र में नजर आ रहे हैं, तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या ये महज संयोग है या जिम्मेदारी से बचने की आदत बन गई है?
चौंकाने वाली बात यह भी है कि मुख्यमंत्री जैसे संवेदनशील पद की सुरक्षा से जुड़ी खुफिया एजेंसियों ने भी इस खतरे को नज़रअंदाज़ कर दिया। जब किसी भी मुख्यमंत्री के दौरे से पहले उसकी सुरक्षा को लेकर गहन जांच, रूट चार्ट, वाहन निरीक्षण और तमाम व्यवस्थाएं सुनिश्चित की जाती हैं, तब कॉर्बेट प्रशासन की यह चूक और सुरक्षा एजेंसियों की निष्क्रियता हैरान करती है। यह पूरी घटना दर्शाती है कि एक नहीं, बल्कि कई स्तरों पर प्रणालीगत असफलता हुई है। जिस गाड़ी का उपयोग मुख्यमंत्री जैसे उच्च पदस्थ व्यक्ति के लिए किया गया, उसकी कोई भी जानकारी सुरक्षा टीम ने पहले से नहीं ली, यह लापरवाही केवल विभागीय नहीं बल्कि राज्यस्तरीय चूक बन जाती है।
जब इस विषय पर वन मंत्री सुबोध उनियाल से सवाल किया गया तो शुरुआत में उन्होंने कुछ भी कहने से इनकार कर दिया, लेकिन बाद में उन्होंने इस चूक को स्वीकार करते हुए यह जरूर कहा कि यह देखना होगा कि गलती किस स्तर पर हुई। उन्होंने यह भी कहा कि सामान्यतः सरकारी वाहनों का बीमा नहीं कराया जाता, लेकिन यह जवाब तब बेमानी हो जाता है जब पाँच साल से फिटनेस न कराने का सवाल उठता है। सुबोध उनियाल के पास इस बात का कोई जवाब नहीं था कि 2020 में जब गाड़ी की फिटनेस समाप्त हो चुकी थी, तब उसके बाद से कॉर्बेट टाइगर रिजर्व के निदेशक ने इस ओर ध्यान क्यों नहीं दिया। हालांकि बाद में उन्होंने स्वयं इस बात की पुष्टि की कि जिस गाड़ी में मुख्यमंत्री यात्रा कर रहे थे, उसकी फिटनेस वास्तव में समाप्त हो चुकी थी।
यह संपूर्ण प्रकरण एक बार फिर बेनकाब कर गया कि राज्य के सर्वोच्च पद पर आसीन व्यक्ति की सुरक्षा भी अब उन हाथों में है, जो या तो लापरवाही को ही कार्य संस्कृति मान चुके हैं या फिर जिम्मेदारियों से आंख चुराने की आदत पाल चुके हैं। यह सवाल अब बेहद गंभीर हो चला है कि क्या मुख्यमंत्री की सुरक्षा केवल फाइलों और कागजों में लिखे गए सख्त प्रोटोकॉल तक ही सीमित रह गई है? क्या सुरक्षा एजेंसियां और विभागीय अधिकारी इसे सिर्फ औपचारिकता मान बैठे हैं? जिस तरह से फिटनेस रहित और असुरक्षित वाहन में मुख्यमंत्री को सैर कराई गई, उसने सिस्टम की पोल खोल दी है। वन विभाग की यह शर्मनाक चूक केवल उसकी कार्यशैली पर सवाल नहीं उठाती, बल्कि जनता के बीच सरकार की विश्वसनीयता को भी गंभीर रूप से आहत करती है। यह घटना निश्चय ही जवाबदेही के पुनरावलोकन की मांग करती है।