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गीता आश्रम में गूंजा पर्यावरण बचाने का वैदिक मंत्र, संस्कृत के मंच से जागी हरियाली की चेतना

वेद, विज्ञान और पर्यावरण चेतना के संगम पर संस्कृत विद्वानों ने दिया प्रकृति संरक्षण का भावनात्मक और प्रेरणादायक संदेश, छात्रों में दिखा उत्साह।

हरिद्वार/ऋषिकेश। गंगा तट की दिव्य भूमि पर उस समय एक विलक्षण और प्रेरणादायी दृश्य उत्पन्न हुआ जब उत्तराखंड संस्कृत निदेशालय और उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय हरिद्वार के संयुक्त तत्वावधान में विश्व पर्यावरण दिवस के शुभ अवसर पर ऋषिकेश स्थित गीता आश्रम में एक भव्य एवं जागरूकता से परिपूर्ण कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इस आध्यात्मिक और पर्यावरणीय समारोह में वैदिक परंपरा की गूंज और आधुनिक वैज्ञानिक चिंतन का ऐसा अलौकिक समन्वय देखने को मिला, जिसने उपस्थित जनसमूह के अंतर्मन को झकझोर कर रख दिया। पर्यावरण संरक्षण को धर्म, दर्शन और जीवन की अनिवार्य शर्त के रूप में प्रस्तुत करते हुए वक्ताओं ने न केवल शास्त्रों से उदाहरण दिए, बल्कि वर्तमान वैश्विक संकट की ओर भी गंभीरता से ध्यान आकर्षित किया। इस अद्वितीय अवसर पर सभी को ऐसा प्रतीत हुआ मानो प्रकृति स्वयं अपनी रक्षा की पुकार कर रही हो, और समाज को उसकी पुकार सुनकर तत्काल सक्रिय होने की आवश्यकता है।

कार्यक्रम के दौरान सचिव संस्कृत शिक्षा दीपक गैरोला ने अपने मर्मस्पर्शी और विचारोत्तेजक उद्बोधन से वहां उपस्थित सभी श्रोताओं को गहराई से प्रभावित किया। उन्होंने अत्यंत प्रभावशाली ढंग से कहा कि पर्यावरण संरक्षण को केवल सरकारी जिम्मेदारी मानकर हम अपने कर्तव्यों से पीछे नहीं हट सकते। यदि वास्तव में पृथ्वी को बचाना है, तो प्रत्येक नागरिक को व्यक्तिगत स्तर पर आगे आकर प्रयास करने होंगे। उन्होंने बताया कि केंद्र और राज्य सरकारें पर्यावरण संवर्धन हेतु तमाम योजनाएं चला रही हैं, वृक्षारोपण अभियान से लेकर सिंगल यूज़ प्लास्टिक पर रोक और प्रदूषण नियंत्रण उपायों तक कई प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन जब तक समाज स्वयं इसमें सक्रिय भागीदारी नहीं करेगा, तब तक इन योजनाओं की सफलता अधूरी ही रहेगी। उन्होंने इस बात पर विशेष जोर दिया कि पर्यावरण रक्षा कोई सरकारी आदेश नहीं, बल्कि हर नागरिक का नैतिक और मानवीय दायित्व है, जिसे बिना किसी विलंब के निभाया जाना चाहिए।

संस्थान के कुलपति दिनेश चंद्र शास्त्री की अध्यक्षता में आयोजित इस विचारगोष्ठी में वैदिक सूत्रों से पर्यावरण की रक्षा के उपाय सामने आए। शास्त्री ने बताया कि ऋग्वेद, यजुर्वेद जैसे ग्रंथों में ओजोन परत के क्षरण की समस्या और उसके समाधान के उपाय सदियों पूर्व दर्ज हैं। उन्होंने श्अग्निहोत्रश् को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी उपयोगी बताया और यह भी कहा कि अग्निहोत्र से वातावरण में ऑक्सीजन की वृद्धि होती है, जिससे ओजोन परत की मरम्मत संभव है। यह विचार श्रोताओं के लिए उतना ही रोचक था जितना आधुनिक विज्ञान का कोई शोध पत्र। संस्कृत शिक्षा निदेशक आनंद भारद्वाज ने अपने संबोधन में संस्कृत साहित्य में पर्यावरण के प्रति निहित भावनाओं को उजागर किया। उन्होंने बताया कि संस्कृत की विविध शाखाओं में वृक्षों, नदियों, वनों, पर्वतों की पूजा और उनका सम्मान पर्यावरणीय चेतना का ही प्रतिबिंब है।

कुलसचिव गिरीश अवस्थी ने इस अवसर पर प्राचीन जीवनशैली को पर्यावरणीय संकटों का हल बताया। उन्होंने कहा कि मानव यदि वेदों और धर्मशास्त्रों में निहित सरल जीवन के सिद्धांतों को अपनाए, तो पर्यावरणीय समस्याओं से बड़ी सहजता से निपटा जा सकता है। कार्यक्रम में उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय के पर्यावरण विशेषज्ञ विनय सेठी ने अपने पावर पॉइंट प्रेजेंटेशन से वैश्विक पर्यावरणीय संकटों की स्थिति और उनसे निपटने के उपायों को सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया। उनके प्रस्तुतीकरण ने सभी श्रोताओं को तकनीकी और सांस्कृतिक पक्षों के समन्वय की गहराई से अवगत कराया।

शिक्षकों और विद्यार्थियों की उपस्थिति ने इस आयोजन को और भी सार्थक बना दिया। संचालन विनायक भट्ट ने अत्यंत सजीव और संयमित तरीके से किया, जिससे संपूर्ण कार्यक्रम एक सुव्यवस्थित रूप में सामने आया। आयोजन के अंत में सहायक निदेशक मनोज सेमल्टी ने सभी आमंत्रितों, वक्ताओं और सहभागियों का हार्दिक आभार व्यक्त किया। इससे पहले पर्यावरणीय प्रतीकात्मकता को और मजबूत करने हेतु दीपक गैरोला ने देश के प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के ष्एक वृक्ष माँ के नामष् अभियान के तहत श्गीता आश्रमश् परिसर में वृक्षारोपण किया। यह क्षण भावनात्मक भी था और प्रेरणादायक भी, जब उन्होंने उस वृक्ष को मातृस्मृति को समर्पित करते हुए रोपित किया।

इस अद्वितीय और प्रेरक आयोजन ने यह संदेश अत्यंत प्रभावशाली ढंग से दिया कि संस्कृत की धरती केवल वेद-शास्त्रों की पोषक नहीं, बल्कि वह पर्यावरणीय चेतना और संतुलित जीवन शैली की भी सशक्त संवाहक है। ऋषिकेश जैसी दिव्य तपोभूमि पर जब पर्यावरण के रक्षक, विद्वान और चिंतक एक मंच पर एकत्र होते हैं, तो यह दृश्य न केवल प्रेरणा देता है बल्कि यह भी प्रमाणित करता है कि प्रकृति और संस्कृति का अटूट संबंध है। इस आयोजन से यह भावना और गहराई से उभरी कि प्रकृति केवल उपयोग की वस्तु नहीं, वह हमारी माता तुल्य है — जिसकी रक्षा करना हमारा पवित्र दायित्व है। यहां से उठी हर आवाज, हर विचार, हर संकल्प देश-प्रदेश के कोने-कोने तक गूंजता है और यह बताता है कि जब प्रकृति संकट में हो, तो संस्कृति ही उसका सबसे सशक्त प्रहरी बनकर सामने आती है।

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