काशीपुर। यह चौंकाने वाला और शर्मनाक मामला महनगर में जैसे तेजी से विकसित हो रहे शहर की उन खामियों को उजागर करता है, जो सीधे तौर पर लोगों की जान से खिलवाड़ कर रही हैं। उत्तराखंड के इस औद्योगिक और शैक्षणिक नगरी में आग से सुरक्षा के मानकों की जिस तरह अनदेखी हो रही है, वह न केवल प्रशासन की कार्यशैली पर सवाल खड़े करती है, बल्कि पूरे स्वास्थ्य तंत्र की नींव को भी हिलाकर रख देती है। यहां कई निजी अस्पताल महज़ कागजों पर सुरक्षा उपाय दर्शाकर फायर विभाग से अनापत्ति प्रमाणपत्र (एनओसी) हासिल कर लेते हैं, लेकिन जमीनी हकीकत उससे बिल्कुल अलग और खतरनाक है। दरअसल, अग्निशमन की व्यवस्था कई अस्पतालों में दिखावे भर की रह गई है। न तो वहां आग लगने पर बचाव के उचित उपाय मौजूद हैं और न ही किसी भी प्रकार की इमरजेंसी के लिए भवनों को इस तरह डिज़ाइन किया गया है कि लोग सुरक्षित बाहर निकल सकें।
स्थिति तब और भी चिंताजनक हो जाती है जब यह पता चलता है कि अग्निशमन विभाग और स्वास्थ्य प्रशासन खुद इन खामियों से वाकिफ होते हुए भी चुप्पी साधे हुए हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो कुछ अस्पताल संचालक ‘शॉर्टकट अधिकारियों’ से मेलजोल कर जानबूझकर इन मानकों की अनदेखी कर रहे हों। सरकारी योजनाओं का लाभ उठाने वाले इन अस्पतालों ने अपने परिसर में सुरक्षा इंतजाम बस कागजों तक ही सीमित कर दिए हैं। उदाहरण के तौर पर मुरादाबाद रोड पर संचालित नव्या मल्टी स्पेशलिटी हॉस्पिटल की स्थिति तो और भी भयावह है। अस्पताल की पूरी इमारत ही इस बात का जीता-जागता उदाहरण है कि कैसे जान की कीमत पर सुविधाओं का संचालन किया जा सकता है। ना तो वहां सुरक्षित निकासी के मार्ग हैं, और ना ही फायर अलार्म जैसी कोई ठोस व्यवस्था, जिससे किसी इमरजेंसी की चेतावनी मिल सके। इस अस्पताल में किसी भी समय अगर कोई बड़ी दुर्घटना हो जाए, तो जान-माल की भारी हानि से इनकार नहीं किया जा सकता।
पिछले वर्षों में भारत के कई हिस्सों से जो दर्दनाक हादसे सामने आए हैं, वे इस बात की चेतावनी हैं कि अग्नि सुरक्षा को लेकर लापरवाही अब जानलेवा बन चुकी है। वर्ष 2021 में महाराष्ट्र के भंडारा जिला अस्पताल में जब शॉर्ट सर्किट से लगी आग में 10 मासूम नवजातों की मौत हुई थी, तब पूरे देश का दिल कांप गया था। इसी तरह 2022 में अहमदाबाद के कोविड अस्पताल में लगी आग में 6 मरीजों की मौत हुई, और 2023 में दिल्ली के विवेक विहार स्थित एक निजी अस्पताल में आग लगने से तीन लोगों की जान चली गई। इन त्रासदियों ने बार-बार चेताया कि यदि समय रहते सुरक्षा मानकों का पालन न किया जाए, तो इसका खामियाजा आम नागरिकों को अपनी जान देकर भुगतना पड़ता है। इसके बावजूद अगर कोई अधिकारी आंख मूंदे बैठा है, तो यह लापरवाही नहीं बल्कि एक सीधा आपराधिक कृत्य है।
यह अत्यंत विचारणीय तथ्य है कि यह पूरा मामला मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के गृह जनपद उधम सिंह नगर से जुड़ा है। जब स्वयं मुख्यमंत्री के जिले में इस तरह की खतरनाक लापरवाहियां सामने आ रही हों, तो पूरे प्रदेश की स्थिति की कल्पना ही भयावह हो जाती है। यहां प्रशासन की निष्क्रियता और अग्निशमन विभाग की चुप्पी एक खतरनाक संकेत है कि हम किसी भी हादसे का इंतजार कर रहे हैं। क्या हम इतने संवेदनहीन हो चुके हैं कि किसी बड़ी त्रासदी के बाद ही हरकत में आएंगे? या फिर ये सारे तंत्र केवल रस्मअदायगी और भ्रष्टाचार के गठजोड़ का हिस्सा बन चुके हैं? आज सवाल यही है कि किसकी जिम्मेदारी तय की जाएगी और कब?
अब वक्त आ चुका है जब इन लापरवाह अस्पतालों पर न सिर्फ कठोर कार्रवाई की जाए बल्कि फायर एनओसी की प्रक्रिया को भी पूर्णतः पारदर्शी और तकनीकी निगरानी के अधीन किया जाए। अग्निशमन से जुड़ी सभी सुविधाएं हर अस्पताल में अनिवार्य रूप से मौजूद होनी चाहिए, जिनकी समय-समय पर जांच हो और हर खामी पर जवाबदेही तय की जाए। साथ ही, मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपने गृह जनपद में इस तरह की गंभीर लापरवाही को बर्दाश्त न करें और इसके खिलाफ तत्काल कार्रवाई सुनिश्चित करें। आम जनता की सुरक्षा और विश्वास अब सरकार और प्रशासन की परीक्षा में है कृ अब कोई बहाना नहीं चलेगा।