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अब नहीं सहेंगे ज़ुल्म का वार, भारत ने ठाना है आर-पार का हिसाब चुकाना

हर ज़ख्म का हिसाब होगा अब तय, भारत देगा दुश्मनों को ऐसा जवाब जो इतिहास में मिसाल बनकर हमेशा याद रखा जाएगा।

रामनगर(सुनील कोठारी)। संकट की इस घड़ी में जब पूरा देश पहलगाम की त्रासदी से हिल चुका है, जन-जन का खून खौल रहा है, तब भारत के लिए रास्ता चुनना केवल एक राजनीतिक निर्णय नहीं, बल्कि राष्ट्रीय आत्मसम्मान का सवाल बन चुका है। इस भीषण हमले ने न सिर्फ निर्दाेष नागरिकों की जान ली, बल्कि पूरे राष्ट्र की आत्मा को झकझोर दिया है। हर गली, हर मोहल्ले में आज यही मांग गूंज रही है कि जिन्होंने इस जघन्य कृत्य को अंजाम दिया है, उन्हें ऐसा करारा और इतिहासिक जवाब मिले कि अगली पीढ़ियाँ भी याद रखें। यह महज़ एक सुरक्षा विफलता नहीं, बल्कि भारत की अस्मिता पर हमला है और अब देश की जनता उस नेतृत्व की ओर देख रही है, जिसने पुलवामा कांड के बाद बालाकोट की गूंज से पूरे विश्व को हिला दिया था प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। उनके लिए जनता की अपेक्षाएं आज केवल एक भावना नहीं, बल्कि एक ज्वालामुखी के जैसे सुलगती मांग बन गई हैं, जिसे अब सटीक और निर्णायक तरीके से ठंडा करना होगा।

शब्दों से परे, यह समय केवल प्रतिक्रियाओं का नहीं बल्कि एक संतुलित और सधे हुए निर्णय का है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कभी कहा था कि “यह युद्ध का युग नहीं है,” और इस कथन का अर्थ अब और भी गहरा हो गया है। भारत अब उस मुकाम पर खड़ा है जहाँ उसे भावनाओं और रणनीति के संतुलन के साथ चलना होगा। राष्ट्र की अस्मिता की रक्षा के लिए जो कदम उठाए जाएं, वे न सिर्फ सटीक हों बल्कि वैश्विक मंच पर भारत की गरिमा और गंभीरता को भी प्रदर्शित करें। पुलवामा के बाद जैसा भारत ने जवाब दिया, वैसी ही कोई ठोस और गूंजदार रणनीति अब समय की पुकार बन चुकी है। पर साथ ही यह भी अहम है कि जो कदम उठाए जाएं, वे इस भावना को प्रतिबिंबित करें कि भारत बदले की आग में नहीं, बल्कि न्याय और नीति की मशाल के साथ आगे बढ़ता है।

देश के सामाजिक तानेबाने में जिस तरह की दरारें हाल के समय में देखी गईं हैं, वे भी इस संकटकाल में नई चिंता बनकर उभरी हैं। मुर्शिदाबाद, नागपुर और अन्य स्थानों पर दंगों की आग पहले ही एकता के धागों को झुलसा चुकी है। अब यदि सरकार सांप्रदायिक सौहार्द्र को सर्वाेपरि न बनाए और राज्यों को राजनीति की चादर में बाँधने लगे, तो इस हमले के असली मकसद को ही बल मिलेगा। तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों को साथ लेकर चलना न केवल एक समझदारी भरा फैसला होगा, बल्कि इससे एकता का शक्तिशाली संदेश भी जाएगा। आज विपक्ष और सत्ता पक्ष में भले वैचारिक मतभेद हों, लेकिन जब देश पर आंच आए तो यह दिखना चाहिए कि सब एक स्वर में बोल रहे हैं। इसी भाव में राहुल गांधी द्वारा गृहमंत्री अमित शाह को फोन किया जाना और बाकी दलों का समर्थन दर्शाता है कि इस बार भारत की राजनीति ने नफरत की दीवारों को तोड़कर राष्ट्रहित को प्राथमिकता दी है।

जब दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र पर हमला होता है, तो दुनिया की नज़रें भी उस पर टिक जाती हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से लेकर इज़रायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू तक, सभी ने इस हमले की कड़े शब्दों में निंदा की है। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भले मौन रहे हों, लेकिन उनके राजदूत का शोक संदेश इस बात का संकेत है कि वे भारत के रोष को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। अब यह भारत के कूटनीतिक कौशल पर निर्भर करता है कि वह इस वैश्विक समर्थन को किस हद तक पाकिस्तान पर दबाव बनाने में उपयोग करता है। रूस के साथ पुराने संबंध और उसकी वर्तमान स्थिति को देखते हुए यह उम्मीद की जा सकती है कि राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन कम से कम राजनयिक स्तर पर भारत का समर्थन करेंगे। वहीं चीन को लेकर एक सतर्क दृष्टिकोण अपनाना अनिवार्य होगा, क्योंकि वह पाकिस्तान का मौन सहयोगी है और सीपीईसी पर हमलों के कारण वह भारत के खिलाफ अप्रत्यक्ष रणनीति भी अपना सकता है।

जैसे-जैसे यह वैश्विक समीकरण गहराते हैं, वैसे-वैसे भारत को अपने सीमित लेकिन प्रभावशाली विकल्पों पर गंभीरता से विचार करना होगा। अमेरिका के प्रतिष्ठित ‘अमेरिकन एंटरप्राइज़ इंस्टीट्यूट’ के माइकल रुबिन ने पाकिस्तानी फौज के मुखिया जनरल आसिम मुनीर की तुलना ओसामा बिन लादेन से करते हुए जो टिप्पणियाँ की हैं, वे केवल व्यक्तिगत राय नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय असंतोष का संकेत भी हैं। उन्होंने तो यहाँ तक कहा है कि भारत को इज़रायल की तरह पाकिस्तान के खिलाफ कठोर और निर्णायक सैन्य कार्रवाई करनी चाहिए। लेकिन क्या भारत उस रास्ते पर जाएगा जहाँ पूरा पैमाना युद्ध का हो? यह सवाल अब केवल रणनीतिक नहीं, बल्कि आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर भी गंभीर रूप से विचारणीय हो चुका है।

जब रूस-यूक्रेन युद्ध और हमास-इज़रायल संघर्ष जैसे युद्धों की गूंज अब भी दुनिया भर में सुनाई देती है, तब भारत के लिए एक पूर्ण युद्ध का विकल्प न केवल जोखिम भरा है बल्कि दीर्घकालिक रूप से देश के विकास और स्थिरता को भी प्रभावित कर सकता है। बांग्लादेश, पाकिस्तान और चीन के बीच उभरते समीकरण विशेष रूप से चिंताजनक हैं। पाकिस्तान ने जिस तरह बांग्लादेश के साथ सैन्य संबंधों को मजबूत करने की दिशा में कदम बढ़ाया है, वह एक नया मोर्चा खोलने की तैयारी जैसा प्रतीत होता है। दूसरी ओर अमेरिका खुद आंतरिक विवादों में उलझा हुआ है और इस क्षेत्र में उसकी प्राथमिकताएं अब उतनी स्पष्ट नहीं रहीं। भारत को इन सब के बीच पूरब और पश्चिम दोनों सीमाओं पर सतर्कता रखनी होगी और किसी भी तरह के दोहरे मोर्चे से बचना होगा।

जब विकल्पों की बात आती है, तो जल जैसे संवेदनशील मुद्दे भी एक हथियार बन सकते हैं, लेकिन यह एक लम्बी प्रक्रिया है। सिंधु जल संधि को लेकर कार्रवाई करना प्रतीकात्मक से अधिक तभी बन सकता है जब उस पर ठोस और क्रियाशील कदम उठाए जाएं। गर्मियों में जब पाकिस्तान पानी के संकट से जूझ रहा होता है, तब भारत यदि जल के प्रवाह पर प्रभाव डाले, तो उससे दीर्घकालिक दबाव बनाया जा सकता है। मगर यह रास्ता भी पूरी तरह नपे-तुले और अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार ही चुना जाना चाहिए, वरना इसका दुष्प्रभाव भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि पर भी पड़ सकता है। पानी के मोर्चे पर दबाव बनाना तभी सार्थक होगा जब यह एक ठोस रणनीतिक योजना का हिस्सा हो और साथ ही इसके क्रियान्वयन में पूरी स्पष्टता हो।

शायद सबसे अधिक व्यावहारिक विकल्प ‘छोटे युद्ध’ या लक्षित सैन्य कार्रवाइयों का है, जैसा 2016 की सर्जिकल स्ट्राइक या 2019 के बालाकोट हमले में देखा गया था। लेकिन आज के संदर्भ में पाकिस्तान अधिक तैयार दिखता है। आईएसआई और लश्कर जैसे संगठनों की गतिविधियों पर रोक लगाने के लिए ऐसे ठिकानों को निशाना बनाना जरूरी होगा जो पाकिस्तान के सैन्य-खुफिया ढांचे के केंद्र हैं। मुजफ्फराबाद, जो पीओके की राजधानी है, वहां आईएसआई की ‘ज्वाइंट इंटेलिजेंस नॉर्थ’ इकाई तैनात है और यह जम्मू-कश्मीर में सभी आतंकी गतिविधियों का संचालन करती है। वहीं, लाहौर के पास मुरीदके स्थित लश्कर का अड्डा भी एक निर्णायक लक्ष्य हो सकता है। लेकिन इस तरह की सैन्य कार्रवाई को शुरू करने से पहले भारत को पूर्वी सीमाओं और आंतरिक हालातों का भी आंकलन करना होगा।

आज पाकिस्तान की हालत भी जर्जर है – आंतरिक विद्रोहों, ईंधन की कमी और सैन्य संसाधनों की गिरावट ने उसे असहाय बना दिया है। फिर भी, भारत को यह नहीं भूलना चाहिए कि कोई भी कार्रवाई, यदि बिना संपूर्ण रणनीति और आंतरिक राजनीतिक एकजुटता के की जाती है, तो वह नुकसानदायक हो सकती है। ऐसे में यह समय भावनाओं के प्रवाह में बह जाने का नहीं, बल्कि संयम और धैर्य के साथ निर्णय लेने का है। भारत को अब केवल सर्जिकल स्ट्राइक तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि ऐसे कदम उठाने होंगे जो आईएसआई और लश्कर जैसे संगठनों की कमर तोड़ सकें और वैश्विक मंच पर पाकिस्तान को अलग-थलग कर सकें।

अब भारत के लिए समय आ गया है कि वह न केवल अपने दुश्मनों को बल्कि अपने ही भीतर मौजूद अस्थिरताओं को भी निर्णायक रूप से परास्त करे। यह लड़ाई केवल सीमा पर नहीं, बल्कि कूटनीतिक, सामाजिक और वैचारिक स्तर पर भी लड़ी जानी है। इसलिए भारत को अब वह रास्ता चुनना चाहिए जो न केवल दुश्मनों को करारा जवाब दे बल्कि यह भी दिखाए कि यह देश अब किसी भी साज़िश के सामने झुकने वाला नहीं। संकल्प, सफाई और सुनियोजित योजना – यही तीन हथियार अब भारत को उठाने होंगे ताकि एक सख्त और अडिग संदेश पाकिस्तान और पूरे विश्व को दिया जा सके।

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