काशीपुर। देश के प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थानों में गहराते भ्रष्टाचार के एक और हैरान कर देने वाले मामले का पर्दाफाश करते हुए उत्तराखंड हाईकोर्ट ने आईआईएम काशीपुर में चल रहे पांच साल के घोटाले पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। नैनीताल से आई इस खबर ने देशभर में शिक्षा जगत को हिला दिया है, जहां कार्यवाहक अध्यक्ष संदीप सिंह के लंबे और गैरकानूनी कार्यकाल के दौरान वित्तीय अनियमितताएं, प्रशासनिक धांधलियां और पारदर्शिता की कमी उजागर हुई है। अदालत ने इस मामले में केंद्र सरकार को स्पष्ट निर्देश देते हुए कहा है कि चार महीने के भीतर दोषियों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई की जाए। यह निर्णय समाजसेवी सुखविंदर सिंह द्वारा दाखिल एक जनहित याचिका के बाद आया, जिसने इस पूरे भ्रष्टाचार के जाल को उजागर करने का साहसिक कार्य किया। अदालत ने पूरे घटनाक्रम पर तीखी टिप्पणी करते हुए इसे भारतीय प्रबंधन संस्थानों के मूलभूत सिद्धांतों के साथ विश्वासघात करार दिया।
संदीप सिंह की नियुक्ति 9 अगस्त 2019 को आईआईएम नियमावली 2018 के तहत मात्र तीन महीनों के लिए की गई थी, लेकिन उनकी कुर्सी से चिपकी रहने की अदम्य इच्छा ने उन्हें एक-एक करके कार्यकाल विस्तार दिलवाया, और उन्होंने तयशुदा चार साल की नियमित अध्यक्षीय अवधि से भी ज़्यादा समय तक अपनी सत्ता को बनाए रखा। अदालत के फैसले के अनुसार, यह नियुक्ति एक के बाद एक नियमों की अनदेखी और प्रक्रियात्मक कदाचार का प्रतीक है। अदालत ने अपने फैसले में साफ किया है कि संदीप सिंह ने 45वीं और 46वीं बोर्ड ऑफ गवर्नर्स की बैठकें ऐसे समय पर कराईं जब बोर्ड में आवश्यक सदस्य संख्या तक मौजूद नहीं थी, जो कि आईआईएम अधिनियम 2017 के खिलाफ है। इससे भी गंभीर बात यह है कि इन बैठकों के रिकॉर्ड जानबूझकर छिपाए गए और संस्थान की वेबसाइट पर सार्वजनिक नहीं किए गए, ताकि जवाबदेही से बचा जा सके।
संस्थान की आंतरिक जांच रिपोर्ट और 2023 की ऑडिट रिपोर्ट ने जैसे भ्रष्टाचार की परतें खोल दीं। रिपोर्ट के अनुसार, 8.7 करोड़ रुपये का खर्च नियमों के विरुद्ध किया गया जिसमें फर्जी इन्फ्रास्ट्रक्चर खर्च, नियुक्तियों में घपले और बिना आवश्यक योग्यता के प्रोफेसरों को पदोन्नत करने जैसी गंभीर अनियमितताएं शामिल थीं। नामजद प्रोफेसरों में प्रो. कुणाल गांगुली और डॉ. उत्कर्ष का नाम सामने आया है, जिन्हें किसी भी वैध प्रक्रिया का पालन किए बिना ऊंचे पदों पर बिठा दिया गया। यही नहीं, अदालत ने स्पष्ट किया कि इन सभी कृत्यों से संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 का भी खुला उल्लंघन हुआ है, जो नागरिकों को समानता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जीवन के अधिकार की गारंटी देता है।
आईआईएम काशीपुर का यह मामला सिर्फ वित्तीय गड़बड़ियों तक सीमित नहीं रहा बल्कि यह एक तरह का संस्थागत पतन बन गया, जहां भाई-भतीजावाद ने अपनी गहरी जड़ें जमा लीं। संदीप सिंह ने अपने नजदीकी प्रो. सोम नाथ चक्रवर्ती को भी नियमों को ताक पर रखकर उच्च पदों पर बैठा दिया। संस्थान के भीतर उन प्रोफेसरों की आवाजों को दबा दिया गया जिन्होंने इन घोटालों पर सवाल उठाने की हिम्मत की। यहां तक कि दो वरिष्ठ फैकल्टी सदस्यों ने संस्थान में हो रही मनमानी और भय के माहौल से तंग आकर इस्तीफा देना बेहतर समझा। इससे पहले आईआईएम अहमदाबाद और आईआईएम बैंगलोर में भी इसी तरह कार्यवाहक प्रमुखों द्वारा नियमों की अनदेखी की जा चुकी है, जिससे स्पष्ट होता है कि यह समस्या केवल एक संस्थान तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे सिस्टम में गहरे पैठ बना चुकी है।
हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार को आदेशित किया है कि आईआईएम (संशोधन) अधिनियम, 2023 के तहत संस्थान में एक नियमित अध्यक्ष की नियुक्ति की जाए और यह नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाए, जो आईआईएम्स के विजिटर हैं। अदालत ने निर्देश दिया है कि 30 दिनों के भीतर एक खोज समिति का गठन कर उसकी सिफारिश पर अध्यक्ष की पारदर्शी नियुक्ति होनी चाहिए। इसके साथ-साथ कोर्ट ने यह भी आदेश दिया है कि संस्थान द्वारा अब तक छुपाए गए बोर्ड मीटिंग्स के मिनट्स और ऑडिट रिपोर्ट्स को सार्वजनिक किया जाए ताकि पूरे मामले की पारदर्शिता सुनिश्चित हो सके।
इस ऐतिहासिक निर्णय के बाद याचिकाकर्ता के वकील डॉ. कार्तिकेय हरि गुप्ता ने प्रतिक्रिया दी, “यह फैसला भारत के प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों के लिए एक आईना है। यह दिखाता है कि अगर सत्ता बिना नियंत्रण के दी जाए तो भ्रष्टाचार पनपता है और जवाबदेही खत्म हो जाती है। संदीप सिंह का कार्यकाल इस बात का उदाहरण है कि किस तरह एक व्यक्ति संस्थान की नींव को हिला सकता है।” वहीं संस्थान के एक फैकल्टी सदस्य ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “हम कई वर्षों से एक डर के माहौल में काम कर रहे थे। अब हमें उम्मीद है कि न्याय मिलेगा और संस्थान की साख दोबारा बहाल होगी।”
अब देशभर के छात्र, पूर्व छात्र और सामाजिक संगठन मांग कर रहे हैं कि संदीप सिंह के खिलाफ आपराधिक मुकदमा चलाया जाए और इस पूरे घोटाले की जांच सीबीआई से करवाई जाए। इसके साथ ही यह भी मांग की जा रही है कि संस्थान के नए अध्यक्ष की नियुक्ति पूरी तरह पारदर्शी प्रक्रिया से हो, ताकि भविष्य में ऐसे घोटाले दोहराए न जा सकें। अदालत का यह फैसला केवल आईआईएम काशीपुर नहीं, बल्कि पूरे शिक्षा तंत्र को आत्ममंथन करने के लिए बाध्य करता है।