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उत्तराखंड में बीजेपी अध्यक्ष की घोषणा से पहले संघ और पार्टी के बीच खींचतान चरम पर

जेपी नड्डा के उत्तराधिकारी की तलाश में उलझी बीजेपी, उत्तराखंड समेत पांच राज्यों में प्रदेश अध्यक्षों की घोषणा फिलहाल संघ की सहमति पर टिकी

रामनगर। इन दिनों उत्तराखंड के नए भाजपा प्रदेश अध्यक्ष को लेकर चर्चाओं का बाजार गर्म है, लेकिन यह चर्चा किसी निष्कर्ष तक पहुंचती नहीं दिख रही है। राज्य भर में कार्यकर्ता और नेता इस बात की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि आखिर पार्टी नेतृत्व इस महत्वपूर्ण पद पर किस चेहरे को आसीन करेगा। हालांकि घोषणा की प्रतीक्षा लम्बी होती जा रही है, जिससे अटकलों का दौर भी तेज हो गया है। इस देरी को लेकर कई राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि पार्टी आंतरिक मंथन और संगठनात्मक संतुलन साधने में जुटी हुई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पार्टी को अभूतपूर्व मजबूती मिली है, मगर इसके समानांतर संघ से दूरियों की फुसफुसाहट भी लंबे समय से सुनी जा रही है। विशेषकर जब जेपी नड्डा के कार्यकाल की समाप्ति के बाद नए राष्ट्रीय अध्यक्ष की तैनाती की घड़ी भी पास आ चुकी है, तो पार्टी के भीतर असमंजस की स्थिति और भी गहरी हो गई है।

भारतीय जनता पार्टी के आंतरिक संविधान के मुताबिक राष्ट्रीय अध्यक्ष के निर्वाचन की प्रक्रिया तभी आगे बढ़ाई जा सकती है जब देश में पार्टी के 50 प्रतिशत से अधिक प्रदेशों में अध्यक्षों की नियुक्ति हो चुकी हो। वर्तमान स्थिति की बात करें तो पार्टी अब तक 14 राज्यों में अपने प्रदेश अध्यक्षों की घोषणा कर चुकी है। इसका मतलब यह हुआ कि राष्ट्रीय नेतृत्व के चुनाव के लिए अभी पांच और राज्यों में नियुक्तियों की आवश्यकता है। इस सन्दर्भ में उत्तराखंड भी उन चुनिंदा राज्यों में शामिल है जहां अब तक अध्यक्ष का ऐलान नहीं किया गया है। इस स्थिति से यह स्पष्ट है कि जब तक राष्ट्रीय अध्यक्ष की तैनाती नहीं हो जाती, तब तक बाकी राज्यों में भी निर्णय नहीं लिया जाएगा। यह स्थिति सिर्फ एक संगठनात्मक देरी नहीं बल्कि विचारधारात्मक दिशा तय करने की कशमकश को भी उजागर करती है।

भाजपा प्रदेश उपाध्यक्ष ज्योति प्रसाद गैरोला ने भी हाल में इस पर संकेत देते हुए कहा है कि पार्टी के संगठनात्मक ढांचे में लगातार प्रक्रिया जारी है और जल्द ही प्रदेश अध्यक्षों के साथ-साथ राष्ट्रीय अध्यक्ष का भी नाम सामने आएगा। उनका यह बयान इस ओर इशारा करता है कि पार्टी अपने भीतरी समीकरणों को दुरुस्त कर रही है और हर एक नियुक्ति को बड़े परिप्रेक्ष्य में देखा जा रहा है। ऐसे में पार्टी नेतृत्व यह सुनिश्चित करने की कोशिश में है कि अध्यक्षों की नियुक्ति किसी भी रूप में संगठन की एकजुटता और भविष्य की रणनीति को प्रभावित न करे। यह पूरी प्रक्रिया रणनीतिक स्तर पर बेहद संवेदनशील बन गई है, क्योंकि यह सिर्फ एक पद का नामकरण नहीं बल्कि पार्टी की भावी दिशा और नेतृत्व शैली का संकेत भी मानी जा रही है।

राजनीतिक विश्लेषक कुलदीप राणा का मानना है कि पिछले एक दशक में भारतीय जनता पार्टी ने न केवल संगठनात्मक रूप से अपार विस्तार पाया है, बल्कि वह देश की सबसे बड़ी और सबसे प्रभावशाली राजनीतिक ताकत बन चुकी है। लेकिन इस तीव्र वृद्धि के साथ-साथ पार्टी और संघ के बीच वैचारिक फासले भी लगातार बढ़ते गए हैं। उनका कहना है कि अब जबकि भाजपा एक नए युग की ओर बढ़ रही है, उसमें सुधार और बदलाव की प्रक्रिया भी जरूरी हो गई है। इस बदलाव के दौर में संघ की कोशिश है कि पार्टी को दोबारा वैचारिक अनुशासन की ओर मोड़ा जाए, वहीं दूसरी ओर पार्टी का एक बड़ा तबका इस बात का पक्षधर है कि निर्णय की शक्ति पार्टी के ही पास रहे और संगठन अपनी शर्तों पर आगे बढ़े।

इन दो विचारधाराओं की टकराहट के चलते राष्ट्रीय अध्यक्ष की तैनाती एक उलझी हुई गुत्थी बन गई है। जहां एक ओर संघ चाहता है कि नया अध्यक्ष वैचारिक रूप से उसके अधिक निकट हो, वहीं पार्टी का नेतृत्व ऐसा चेहरा तलाश रहा है जो संगठन की वर्तमान रणनीति और राजनीतिक समीकरणों के अनुरूप हो। यही द्वंद पार्टी को निर्णायक फैसले से रोक रहा है और जब तक यह कशमकश समाप्त नहीं होती, तब तक प्रदेश अध्यक्षों की भी घोषणा संभव नहीं है। यह स्थिति उत्तराखंड जैसे राज्यों में असमंजस की स्थिति पैदा कर रही है जहां कार्यकर्ता नए नेतृत्व की राह देख रहे हैं। इस लंबे इंतजार के बीच यह भी साफ होता जा रहा है कि भाजपा केवल नाम की घोषणा नहीं कर रही, बल्कि एक बड़े राजनीतिक संदेश को तय करने में जुटी है।

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