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कॉर्बेट में बाघों पर रेडियो कॉलर से निगरानी मानव बाघ संघर्ष को मिलेगा समाधान

काशीपुर। कॉर्बेट टाइगर रिजर्व में बाघों की बढ़ती संख्या वन्यजीव संरक्षण की सफलता का प्रतीक तो है, लेकिन यह स्थानीय निवासियों के लिए डर और चिंता का कारण भी बनती जा रही है। रामनगर क्षेत्र में आए दिन मानव-बाघ संघर्ष की घटनाएं सामने आ रही हैं, जिससे न केवल लोगों की जान-माल की हानि हो रही है, बल्कि बाघों की सुरक्षा भी खतरे में पड़ रही है। इन गंभीर हालातों को देखते हुए कॉर्बेट टाइगर रिजर्व प्रशासन ने एक क्रांतिकारी वैज्ञानिक योजना पर काम शुरू किया है, जो आने वाले समय में मानव और वन्यजीवों के बीच की खाई को पाटने में सहायक सिद्ध हो सकती है। इस अभिनव पहल के अंतर्गत उन बाघों की पहचान की जा रही है जो बार-बार आबादी वाले क्षेत्रों की ओर भटक जाते हैं। उन्हें बेहोश कर रेडियो कॉलर पहनाए जाएंगे और फिर सुरक्षित रूप से कोर एरिया में भेजा जाएगा ताकि उनकी हर गतिविधि पर निगरानी रखी जा सके।

डॉ. साकेत बडोला, जो कि कॉर्बेट टाइगर रिजर्व के निदेशक हैं, उन्होंने बताया कि इस योजना को उत्तराखंड के मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक की स्वीकृति प्राप्त है और इसमें वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड (WWF) इंडिया का तकनीकी सहयोग भी लिया जा रहा है। बाघों की गतिविधियों को जानने, उनकी आदतों को समझने और यह परखने के लिए कि वे कोर जोन में सहज हो रहे हैं या फिर बार-बार मानव बस्तियों की ओर लौट रहे हैं—इस पूरी प्रक्रिया को एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संचालित किया जा रहा है। प्रशिक्षित टीम ऐसे बाघों को पूरी सावधानी के साथ ट्रैंकुलाइज करेगी ताकि उन्हें किसी प्रकार की क्षति न पहुंचे। इसके बाद रेडियो कॉलर की सहायता से उनकी मूवमेंट की रियल टाइम मॉनिटरिंग की जाएगी, जिससे हर पल की जानकारी प्रशासन को मिल सके और समय रहते कोई भी आपदा टाली जा सके।

कॉर्बेट रिजर्व प्रशासन का यह निर्णय केवल बाघों की गतिविधियों पर नजर रखने तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका मूल उद्देश्य उन क्षेत्रों की पहचान करना भी है जहां मानव-बाघ संघर्ष की आशंका अधिक होती है। डॉ. साकेत बडोला ने स्पष्ट किया कि संवेदनशील क्षेत्रों को प्राथमिकता पर चिन्हित किया गया है और वहीं से बाघों को पकड़ने की प्रक्रिया शुरू की जाएगी। इन क्षेत्रों में बार-बार बाघों के आने की घटनाएं न केवल लोगों में भय का कारण बन रही हैं, बल्कि यह बाघों की जीवनशैली पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाल रही हैं। ऐसे में रेडियो कॉलर की यह रणनीति दोनों पक्षों के हितों की रक्षा करती है—एक ओर बाघों की सुरक्षा सुनिश्चित होती है, दूसरी ओर ग्रामीणों के जान-माल की हानि को भी टाला जा सकता है।

वन्यजीव विशेषज्ञों और पर्यटन क्षेत्र से जुड़े अनुभवी लोगों ने भी इस योजना की जमकर सराहना की है। उनका मानना है कि कॉर्बेट टाइगर रिजर्व की यह पहल न केवल उत्तराखंड, बल्कि देश के अन्य टाइगर रिजर्व्स के लिए भी एक अनुकरणीय मॉडल बन सकती है। वर्षों से कॉर्बेट रिजर्व को टाइगर हॉटस्पॉट के रूप में जाना जाता है और यहां की बाघों की संख्या देश के अन्य संरक्षित क्षेत्रों से अधिक है। ऐसे में जब इस संवेदनशील क्षेत्र में वैज्ञानिक और आधुनिक तकनीक का सहारा लिया जा रहा है, तो इसका असर दूरगामी होगा। इससे न केवल बाघों के व्यवहार को समझा जा सकेगा बल्कि संरक्षण की नई दिशा भी तय होगी, जिसमें इंसानों और जानवरों के बीच टकराव को न्यूनतम किया जा सकेगा।

डॉ. साकेत बडोला का कहना है कि रेडियो कॉलर योजना की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इससे प्राप्त आंकड़े भविष्य की रणनीति निर्धारण में बेहद उपयोगी सिद्ध होंगे। जब बाघों के मूवमेंट की हर गतिविधि का डाटा रिकॉर्ड होगा तो यह जानना आसान होगा कि वे किन परिस्थितियों में कोर जोन छोड़कर बस्तियों की ओर बढ़ते हैं। क्या भोजन की कमी है? क्या उनका प्राकृतिक आवास खतरे में है? ऐसे अनेक सवालों के जवाब इस मॉनिटरिंग से मिल सकते हैं और इन्हीं आंकड़ों के आधार पर संघर्ष को समय रहते रोका जा सकता है।

रामनगर वन प्रभाग, कॉर्बेट टाइगर रिजर्व और तराई पश्चिमी क्षेत्र में बीते तीन वर्षों में 18 से अधिक लोगों की जान वन्यजीवों के हमले में जा चुकी है, जिनमें बाघ और गुलदार प्रमुख रहे हैं। इसके अलावा 25 से अधिक लोग घायल भी हुए हैं। यह आंकड़े अपने आप में इस समस्या की गंभीरता को दर्शाते हैं। ऐसे में यह पहल न केवल एक ज़रूरत है, बल्कि एक जिम्मेदारी भी है जिसे निभाना प्रशासन और समाज दोनों का कर्तव्य है। कॉर्बेट टाइगर रिजर्व की यह कोशिश वन्यजीव संरक्षण और मानवीय सुरक्षा के बीच एक मजबूत पुल बनाने की दिशा में उठाया गया ठोस कदम है, जिसकी जितनी सराहना की जाए, कम है।

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