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जेएनयू छात्र संघ चुनाव में वामपंथी बनाम एबीवीपी की टक्कर तेज

एक महीने की देरी से हो रहे जेएनयू छात्र संघ चुनाव में फिर गर्माई सियासत, वामपंथी गठबंधन और एबीवीपी के बीच कांटे की टक्कर संभावित

नई दिल्ली(स्वाती गुप्ता)। देश की राजधानी में शिक्षा और राजनीति का सबसे चर्चित केंद्र माने जाने वाले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में एक बार फिर छात्र राजनीति का बिगुल बज चुका है। लंबे समय से टलते आ रहे छात्र संघ चुनावों की तारीखें आखिरकार घोषित कर दी गई हैं। इस बार का चुनाव पिछले वर्षों की तुलना में तकरीबन एक महीने की देरी से हो रहा है, जिससे छात्रों में चुनावी माहौल और अधिक गर्मा गया है। विश्वविद्यालय प्रशासन और छात्र संगठनों के बीच खींचतान और विचारों की टकराहट के बाद आखिरकार छात्र संघ चुनावों को लेकर सहमति बन पाई है। चुनावी कार्यक्रम के अनुसार 15 अप्रैल को नामांकन की प्रक्रिया शुरू होगी और नाम वापस लेने की अंतिम तिथि 16 अप्रैल तय की गई है। वहीं 23 अप्रैल को प्रेसिडेंशियल डिबेट आयोजित होगी, जिसके बाद 25 अप्रैल को छात्र अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे। मतगणना 28 अप्रैल को की जाएगी और उसी दिन चुनावी परिणाम भी घोषित किए जाएंगे।

जेएनयू की छात्र राजनीति हमेशा से देशभर की सुर्खियों में रहती है, क्योंकि यहां का चुनाव न केवल छात्रों के बीच वर्चस्व की लड़ाई होती है, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति की नर्सरी भी यहीं से तैयार होती है। दशकों से वामपंथी छात्र संगठनों का वर्चस्व जेएनयू छात्र संघ में लगातार बना हुआ है। आइसा, एसएफआई, एआईएसएफ और एसडीएफ जैसे चारों वामपंथी संगठन आपसी सामंजस्य के साथ चुनावी रणनीति बनाकर उम्मीदवार तय करते हैं, जिससे उनके जीतने की संभावना कई गुना बढ़ जाती है। यह गठबंधन ही उनके प्रभुत्व को स्थायी बनाए रखने का सबसे बड़ा कारण माना जाता है। वर्ष 2015 को अगर अपवाद मानें तो उस साल अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के उम्मीदवार सौरभ शर्मा ने संयुक्त सचिव पद पर जीत दर्ज कर इतिहास रचा था, लेकिन उसके बाद से एबीवीपी को अब तक फिर से छात्र संघ में अपनी जगह बनाने का मौका नहीं मिला है।

बीते वर्ष हुए छात्र संघ चुनाव में भी वामपंथी संगठनों ने चारों प्रमुख पदों पर कब्जा जमाया था। अध्यक्ष पद पर आइसा के उम्मीदवार धनंजय, उपाध्यक्ष पद पर एसएफआई के अविजीत घोष, महासचिव पद पर बापसा की प्रियांशी, और संयुक्त सचिव के पद पर एआईएसएफ के मोहम्मद साजिद ने भारी मतों से जीत दर्ज की थी। वहीं दूसरी ओर, दक्षिणपंथी छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) को चारों पदों पर दूसरे स्थान से ही संतोष करना पड़ा था, जिससे उनके समर्थकों में मायूसी साफ देखने को मिली थी। हालांकि इस बार एबीवीपी ने अपनी रणनीति में बदलाव लाते हुए पहले ही छात्रसंघ चुनावों के लिए जोर-शोर से तैयारी शुरू कर दी है। वह इस बार किसी भी कीमत पर जेएनयू छात्र संघ में वापसी का सपना पूरा करना चाहता है, जिसके लिए उसके कार्यकर्ता लगातार छात्रों के बीच संवाद और प्रचार अभियान में जुटे हैं।

वर्तमान में जेएनयू छात्र राजनीति का परिदृश्य न केवल शिक्षा के मुद्दों तक सीमित है, बल्कि सामाजिक न्याय, विचारधारात्मक टकराव और राष्ट्रीय नीतियों पर छात्र संगठनों की प्रतिक्रियाओं से भी प्रभावित होता है। यही कारण है कि जेएनयू छात्र संघ चुनाव केवल एक संस्थान तक सीमित नहीं रहता, बल्कि पूरे देश में इसकी गूंज सुनाई देती है। जेएनयू से निकले कई छात्र नेता बाद में राष्ट्रीय राजनीति में अहम भूमिका निभा चुके हैं, जिससे यहां का हर चुनाव भविष्य के किसी बड़े नेता की नींव भी बन सकता है। यही वजह है कि देश की बड़ी पार्टियों की छात्र इकाइयां भी इस चुनाव को गंभीरता से लेती हैं और पूरा ध्यान देकर मैदान में उतरती हैं। अब देखना यह होगा कि क्या इस बार भी वामपंथी गठबंधन अपनी पकड़ को बरकरार रख पाएगा या फिर एबीवीपी कोई नया इतिहास रचेगी और सालों बाद जेएनयू में अपने लिए कोई मुकाम हासिल करेगी।

छात्रों में इस चुनाव को लेकर खासा उत्साह देखा जा रहा है और सोशल मीडिया से लेकर कैंपस के हर कोने में चुनावी चर्चा गर्म है। प्रेसिडेंशियल डिबेट को लेकर भी छात्रों में विशेष दिलचस्पी है, क्योंकि यह मंच वह अवसर होता है जहां सभी प्रत्याशी अपनी विचारधारा और योजनाओं को छात्रों के समक्ष रखते हैं। यहीं से तय होता है कि कौन उम्मीदवार छात्रों की नब्ज को पकड़ पाया और कौन उनके दिलों में जगह बना सका। जेएनयू का राजनीतिक वातावरण जितना वैचारिक है, उतना ही रणनीतिक भी, इसलिए यहां जीतने के लिए सिर्फ विचारधारा ही नहीं, बल्कि संगठनात्मक मजबूती और जमीन से जुड़ाव भी जरूरी है। इस बार के चुनाव नतीजे न केवल जेएनयू के भविष्य को तय करेंगे बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में एक नए नेतृत्व की दस्तक भी दे सकते हैं।

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