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दिल्ली की शराब नीति का घोटाला: महंगी शराब, घटती गुणवत्ता और 2000 करोड़ का नुकसान

नई नीति ने उपभोक्ताओं की जेब काटी, बाजार में मची लूट, सरकार की पारदर्शिता पर उठे सवाल

नई दिल्ली(स्वाती गुप्ता)। दिल्ली की नई शराब नीति ने सरकारी खजाने को झटका दिया है, और इससे उपभोक्ताओं की जेब भी हल्की हुई है। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है कि दिल्ली सरकार की इस नीति से 2,002.68 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। नीति के तहत कीमतों में हेरफेर और ब्रांड एक्सक्लूसिविटी के कारण शराब की कीमतें आसमान छूने लगीं, जिससे उपभोक्ताओं को महंगी शराब खरीदने पर मजबूर होना पड़ा। बाजार में प्रतिस्पर्धा समाप्त होने से उपभोक्ताओं के पास कम विकल्प बचे और उन्हें चुनिंदा ब्रांडों की शराब खरीदनी पड़ी।

सीएजी की रिपोर्ट के अनुसार, नई शराब नीति ने थोक विक्रेताओं को अपनी मनचाही एक्स-डिस्टिलरी प्राइस तय करने की अनुमति दी। इस स्वतंत्रता का लाइसेंसधारकों ने पूरा फायदा उठाया और कीमतों को मनमाने ढंग से बढ़ा दिया। कीमतों में यह बढ़ोतरी 20 से 40 प्रतिशत तक रही, जिससे उपभोक्ताओं की जेब पर सीधा असर पड़ा। पहले जो शराब 800 रुपये में मिलती थी, वह नई नीति लागू होने के बाद 1000 रुपये या उससे भी अधिक कीमत पर बेची जाने लगी। इस मूल्य वृद्धि का मुख्य कारण था कार्टेलाइजेशन और मोनोपॉली, जिसने बाजार से प्रतिस्पर्धा खत्म कर दी। शराब की कीमतों पर नियंत्रण रखने की कोई व्यवस्था न होने के कारण उपभोक्ताओं को अनियंत्रित कीमतों पर शराब खरीदनी पड़ी।

वहीं, ब्रांड एक्सक्लूसिविटी के कारण उपभोक्ताओं के पास सीमित विकल्प रह गए। रिपोर्ट के अनुसार, नई नीति के तहत शराब निर्माताओं को केवल एक थोक विक्रेता के साथ समझौता करने के लिए बाध्य किया गया था। इस व्यवस्था के चलते तीन कंपनियों को 192 ब्रांडों के विशेष आपूर्ति अधिकार मिल गए, जिससे बाजार में इन कंपनियों का दबदबा बढ़ गया। बाजार में कुल 367 पंजीकृत ब्रांडों में से सिर्फ 25 ब्रांडों ने 70 प्रतिशत बिक्री पर कब्जा जमा लिया। इससे उपभोक्ताओं को वही शराब खरीदनी पड़ी, जो ये कंपनियां उपलब्ध कराना चाहती थीं। प्रतिस्पर्धा की कमी के कारण उपभोक्ताओं के पास चुनने के ज्यादा अवसर नहीं थे और उन्हें अधिक दाम पर शराब खरीदनी पड़ी।

सीएजी की रिपोर्ट ने शराब की गुणवत्ता पर भी सवाल खड़े किए हैं। रिपोर्ट के अनुसार, शराब की गुणवत्ता जांच और सुरक्षा मानकों का सही तरीके से पालन नहीं किया गया। लाइसेंस जारी करते समय गुणवत्ता जांच की रिपोर्ट या तो उपलब्ध नहीं थी या फिर वह ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड्स (बीआईएस) के मानकों पर खरी नहीं उतरती थी। कई मामलों में शराब की जांच रिपोर्ट एक साल से पुरानी थी, बिना तारीख के थी या फिर अवैध लैब्स से आई थी। इतना ही नहीं, शराब में पाए जाने वाले हानिकारक तत्वों जैसे मिथाइल अल्कोहल की जांच रिपोर्ट भी गायब थी, जिससे उपभोक्ताओं की सेहत को गंभीर खतरा पैदा हुआ। नकली शराब और मिलावट की शिकायतें बढ़ीं, लेकिन इन शिकायतों का निवारण करने के लिए कोई प्रभावी प्रणाली नहीं थी।

रिपोर्ट ने यह भी उजागर किया है कि दिल्ली सरकार के पास उपभोक्ताओं की शिकायतों को सुनने या उनके निवारण के लिए कोई प्रभावी तंत्र नहीं था। उपभोक्ताओं को शराब की बढ़ी हुई कीमतों, कम विकल्पों और घटती गुणवत्ता पर कोई राहत नहीं मिली। एक्सक्लूसिविटी और कीमतों में हेरफेर से उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम का उल्लंघन हुआ, लेकिन सरकार की ओर से इस पर कोई सख्त कार्रवाई नहीं की गई। अगर पारदर्शी शिकायत निवारण प्रणाली लागू की गई होती, तो उपभोक्ताओं को राहत मिल सकती थी।

सीएजी की रिपोर्ट ने दिल्ली की शराब नीति की पारदर्शिता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। इस नीति से न सिर्फ सरकारी खजाने को भारी नुकसान हुआ, बल्कि उपभोक्ताओं को भी इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। शराब की कीमतों में अनियंत्रित बढ़ोतरी, प्रतिस्पर्धा की कमी, नकली शराब, मिलावट और अवैध व्यापार के कारण उपभोक्ताओं को आर्थिक और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ा। इस रिपोर्ट के सामने आने के बाद अब यह सवाल उठने लगा है कि दिल्ली सरकार की शराब नीति आखिर किसके हित में थी दृ सरकार के, व्यापारियों के या उपभोक्ताओं के?

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