देश की राजधानी दिल्ली से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर एक ऐसे जन नेता ने अपने शरीर को अनशन की आंच पर तपाया है, जिन्हें लोग ‘डल्लेवाल’ के नाम से जानते हैं। वह पिछले 55 दिनों से आमरण अनशन पर बैठे हुए हैं, लेकिन उनकी आवाज़ सुनने वाला कोई नहीं है। उनकी स्थिति बेहद चिंताजनक बन चुकी है। उनका वजन 20 किलो से भी ज्यादा घट चुका है, और उनका शरीर इतनी कड़ी परीक्षा से गुजर रहा है कि शरीर की प्रतिरोधक क्षमता नष्ट हो चुकी है और उसने स्वयं को खाने की शुरुआत कर दी है। डल्लेवाल की मांग किसी नई और विचित्र चीज़ की नहीं है, बल्कि वह वही पुरानी मांग कर रहे हैं जो किसानों के हक में उठती रही है – एमएसपी गारंटी कानून। वह चाहते हैं कि सरकार ऐसा कानून बनाए, जिसके तहत किसान अपनी उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) सुनिश्चित कर सके और अगर बाजार में उसे उस मूल्य से कम मिलती है तो सरकार उसे उस मूल्य पर खरीदे। यह एक सीधी और सरल मांग है, लेकिन सरकार इस पर कान नहीं दे रही है।
किसान लंबे समय से इस मांग को लेकर संघर्ष कर रहे हैं और कई बार उनकी आवाज़ें अनसुनी हो चुकी हैं। वर्तमान सरकार के कार्यकाल में जब से यह आंदोलन शुरू हुआ है, 750 से ज्यादा किसानों की जान जा चुकी है। अब डल्लेवाल जैसे जन नेता मरणासन्न स्थिति में पहुंच चुके हैं, फिर भी सरकार और अन्य राजनीतिक दल उनकी आवाज़ को सुनने के लिए तैयार नहीं हैं। यह स्थिति बेहद चिंताजनक और दुखद है। वर्ष 2011 में जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर एमएसपी गारंटी कानून बनाने की मांग की थी, लेकिन अब जब वह प्रधानमंत्री हैं, तो इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। यह एक विरोधाभास है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी सरकार ने कृषि क्षेत्र को निजीकरण की ओर बढ़ाने के लिए तीन कृषि कानूनों का प्रयास किया था, जिन्हें बाद में वापस लेना पड़ा। इसके बावजूद किसानों की इस महत्वपूर्ण मांग को नजरअंदाज किया गया।
किसान इस बार सरकार से बहुत कुछ नहीं मांग रहे हैं, उनका सिर्फ यही अनुरोध है कि सरकार एमएसपी गारंटी कानून लागू करे ताकि उनकी मेहनत का उचित मूल्य मिल सके। यह कानून न केवल किसानों के अधिकारों की रक्षा करेगा, बल्कि उनकी जीविका को भी सुनिश्चित करेगा। हालांकि, इसके लिए डल्लेवाल और अन्य किसान आंदोलनकारी कई महीनों से संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन उनकी आवाज़ों को अनसुना किया जा रहा है। इसके उलट, सरकार ने कृषि क्षेत्र में निजीकरण को बढ़ावा देने के लिए तीन नए कृषि कानून पेश किए थे, जिन्हें भारी विरोध के कारण वापस ले लिया गया।
आज, डल्लेवाल के समर्थन में 111 किसान और अनशन पर बैठ गए हैं, और उनकी संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। इस समय, देश की सर्वोच्च अदालत ने यह कहा है कि उसके दरवाजे किसानों की समस्याओं को सुनने के लिए हमेशा खुले हैं, लेकिन किसान नेताओं के कई प्रयासों के बावजूद, उनकी समस्याओं का समाधान नहीं हुआ। संयुक्त किसान मोर्चा और किसान मजदूर मोर्चा ने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट से निवेदन किया था कि वह केंद्र सरकार को निर्देशित करें कि किसानों की मांग मानी जाए, लेकिन यह प्रयास भी विफल हो गया। सरकार की संवेदनहीनता और राजनीतिक दलों की असंवेदनशीलता साफ दिखाई दे रही है।
किसान आंदोलन को समाप्त करने के लिए सरकार ने कई प्रयास किए हैं, लेकिन इन प्रयासों के बावजूद, किसानों का हौसला नहीं टूटा। तीन साल पहले, पीएम मोदी का काफिला इस किसान आंदोलन के कारण फंस गया था, जिसके बाद उसे वापस लौटना पड़ा था। इससे यह साबित होता है कि किसानों का संघर्ष सिर्फ अपनी मांगों के लिए नहीं, बल्कि अपनी अस्मिता और अधिकारों के लिए भी है। इस संघर्ष में 25 किसानों के खिलाफ नामजद एफआईआर भी दर्ज की गई है और उनके खिलाफ गंभीर आरोप लगाए गए हैं।
वर्तमान स्थिति यह है कि अब लोग इस इंतजार में हैं कि डल्लेवाल कब दम तोड़ देंगे, बजाय इसके कि उनकी बात सुनी जाए। यह राजनीतिक संवेदनहीनता की सीमा है, जहां किसी के जीवन की कोई कीमत नहीं है। किसान अपनी ताकत को समझ चुके हैं, लेकिन उन्हें सही समर्थन और समर्पण की आवश्यकता है। यदि किसान अपनी आवाज़ उठाना बंद कर दें और कृषि उत्पादों को बाजार में न बेचें, तो यह सत्ता और प्रशासन दोनों के लिए एक बड़ा संदेश होगा। यह समय है जब सरकार को यह समझने की जरूरत है कि किसानों की ताकत अनदेखी नहीं की जा सकती। डल्लेवाल को अगर कुछ हो गया, तो यह पूरे देश और सरकार के लिए एक बड़ा कलंक होगा।