नई दिल्ली(स्वाती गुप्ता)। बीते सप्ताह एक ऐतिहासिक घटनाक्रम के तहत वक्फ (संशोधित) बिल 2025 को दोनों सदनों से मंजूरी मिलने के बाद राष्ट्रपति द्रौपदी ने भी इस पर हस्ताक्षर कर दिए हैं। इस प्रकार यह बिल अब एक पूर्ण कानून बन चुका है। हालांकि संसद में पारित होने के बावजूद यह कानून अब भी देशभर में चर्चाओं और विवादों के केंद्र में बना हुआ है। विरोधी दलों और कई संगठनों ने इसे लेकर सरकार की मंशा पर सवाल उठाए हैं और इस कानून के खिलाफ आवाज़ बुलंद की है। तमिलनाडु की प्रमुख पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके), एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन, कांग्रेस सांसद मोहम्मद जावेद और आम आदमी पार्टी के विधायक अमानतुल्लाह खान ने मिलकर इस कानून को चुनौती देते हुए सर्वाेच्च न्यायालय में याचिकाएं दाखिल की हैं। इन नेताओं का तर्क है कि यह कानून न केवल समुदाय विशेष के अधिकारों का हनन करता है बल्कि इसमें कई ऐसे प्रावधान जो संविधान के मौलिक ढांचे से मेल नहीं खाते।
अरबी भाषा से लिया गया शब्द श्वक्फश् भारतीय उपमहाद्वीप में एक लंबे समय से सामाजिक और धार्मिक व्यवस्थाओं का हिस्सा रहा है। इस्लामी परंपरा में वक्फ का तात्पर्य उन संपत्तियों से होता है जिन्हें स्थायी रूप से जनकल्याण के कार्यों के लिए सुरक्षित कर दिया जाता है। इस व्यवस्था की शुरुआत ब्रिटिश शासन के दौरान 1913 में की गई थी जब वक्फ बोर्ड की औपचारिक नींव रखी गई थी। बाद में 1923 में वक्फ एक्ट बनाया गया और स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात 1954 में इसे संसद में पारित किया गया। फिर 1995 में इसे पुनः नया रूप दिया गया, जिससे वक्फ बोर्ड को और अधिक अधिकार मिले। 2013 में संशोधन के माध्यम से बोर्डों को इतनी ताक़त दे दी गई कि वे बिना बाधा के मुस्लिम दान के नाम पर किसी भी संपत्ति पर दावा कर सकते थे। अब केंद्र सरकार ने इस 1995 अधिनियम को संशोधित करते हुए एक नया कानून पारित किया है जिसका नाम यूनिफाइड वक्फ मैनेजमेंट इम्पावरमेंट एफिशिएंसी एंड डेवलपमेंट एक्ट 2025 रखा गया है, जो मौजूदा कानून की तुलना में काफी बदलाव लेकर आया है।

सरकार की मंशा के मुताबिक इस नए कानून में वक्फ के गठन से जुड़ी प्रक्रियाओं को अधिक स्पष्ट और नियंत्रित किया गया है। 1995 के कानून के तहत वक्फ किसी भी यूज़र या एंडोमेंट के माध्यम से घोषित किया जा सकता था। लेकिन नए अधिनियम के अनुसार अब केवल एंडोमेंट के माध्यम से ही इसकी घोषणा संभव होगी और यूज़र आधारित वक्फ को मान्यता नहीं दी जाएगी। इस अधिनियम में यह भी स्पष्ट किया गया है कि वक्फ घोषित करने वाला व्यक्ति कम से कम पांच वर्षों से मुस्लिम होना चाहिए और जिस संपत्ति को वक्फ किया जा रहा है, उसका वैध स्वामी भी होना चाहिए। इसके साथ ही यह भी तय किया गया है कि वक्फ-अल-औलाद के तहत महिलाओं को उनके उत्तराधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता, जो पिछली व्यवस्था में अस्पष्ट था।
1995 के वक्फ अधिनियम में सरकार की संपत्ति को वक्फ के रूप में घोषित करने से संबंधित कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं थे, जिससे कई बार विवाद पैदा होते थे। नया कानून इस संदर्भ में काफी स्पष्ट है। अब यह कानूनी रूप से तय किया गया है कि कोई भी सरकारी संपत्ति वक्फ नहीं मानी जाएगी। साथ ही यदि किसी संपत्ति के स्वामित्व को लेकर विवाद उत्पन्न होता है, तो इसका निपटारा जिला कलेक्टर द्वारा किया जाएगा जो राज्य सरकार को अपनी रिपोर्ट देगा। इससे पहले वक्फ बोर्ड को यह अधिकार था कि वह किसी भी संपत्ति को वक्फ संपत्ति घोषित कर सकता था, जिससे बार-बार विवाद की स्थिति उत्पन्न होती थी। अब इस अधिकार को बोर्ड से छीनकर प्रशासनिक अधिकारियों के हाथ में सौंप दिया गया है।

जहां पहले वक्फ संपत्तियों का सर्वेक्षण करने के लिए विशेष सर्वे कमीशन और अतिरिक्त आयुक्तों को नियुक्त किया जाता था, वहीं नए कानून के तहत यह ज़िम्मेदारी अब सीधे जिला कलेक्टरों को सौंप दी गई है। यह बदलाव केवल प्रशासनिक प्रक्रिया में नहीं, बल्कि इससे जुड़ी पारदर्शिता और जवाबदेही में भी बड़ा बदलाव लाता है। इसके अतिरिक्त यदि कोई सर्वे पहले से लंबित है, तो अब उसे राज्य के राजस्व कानूनों के अनुरूप पूर्ण कराया जाएगा, जिससे कि राज्य सरकारों को भी निर्णय प्रक्रिया में निर्णायक भूमिका दी जा सके।
केंद्रीय वक्फ परिषद की संरचना में भी इस बार बड़ा परिवर्तन देखने को मिला है। पहले यह तय किया गया था कि परिषद के सभी सदस्य मुस्लिम होंगे और उनमें दो महिलाएं अनिवार्य रूप से शामिल होंगी। अब नए कानून के तहत यह प्रावधान किया गया है कि परिषद में दो गैर-मुस्लिम सदस्य भी होंगे। इसके अलावा सांसद, पूर्व न्यायाधीश और प्रतिष्ठित व्यक्तियों की नियुक्ति के लिए मुस्लिम होना आवश्यक नहीं होगा। हालांकि परिषद में मुस्लिम संगठनों के प्रतिनिधि, इस्लामी कानून के विद्वान, विभिन्न राज्यों के वक्फ बोर्डों के अध्यक्ष और दो महिला सदस्य मुस्लिम समुदाय से ही लिए जाएंगे, जिससे समुदाय का प्रतिनिधित्व बना रहे।

राज्य स्तर पर वक्फ बोर्डों की संरचना भी अब विविधता से परिपूर्ण हो गई है। जहां पहले बोर्ड में मुस्लिम निर्वाचन मंडल से अधिकतम दो सदस्य चुने जाते थे और इनमें सांसद, विधायक, विधान परिषद सदस्य, बार काउंसिल प्रतिनिधि और दो महिलाएं होती थीं, अब नए कानून में राज्य सरकार को यह अधिकार दिया गया है कि वह बोर्ड में किसी भी एक व्यक्ति को नामांकित कर सकती है, चाहे वह मुस्लिम न हो। इसके अतिरिक्त बोर्ड में दो गैर-मुस्लिम सदस्य, शिया, सुन्नी और पिछड़े मुस्लिम वर्गों से एक-एक सदस्य तथा बोहरा और आगाखानी समुदायों से भी एक-एक सदस्य की नियुक्ति होगी यदि राज्य में संबंधित वक्फ संपत्तियां मौजूद हैं। यह प्रावधान समुदायों के बीच संतुलन बनाए रखने की दिशा में एक कदम माना जा रहा है।
विवाद निपटारे के लिए गठित किए जाने वाले ट्रिब्यूनलों की संरचना में भी महत्वपूर्ण बदलाव किया गया है। पुराने अधिनियम के तहत ट्रिब्यूनल का नेतृत्व एक वरिष्ठ न्यायाधीश करते थे और इसमें एक अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट स्तर का अधिकारी तथा एक मुस्लिम कानून विशेषज्ञ होते थे। अब नए अधिनियम में मुस्लिम कानून विशेषज्ञ को हटा दिया गया है और उसके स्थान पर अध्यक्ष के रूप में सेवानिवृत्त या वर्तमान जिला न्यायाधीश और राज्य सरकार के एक संयुक्त सचिव या समकक्ष स्तर के अधिकारी को नियुक्त किया जाएगा। यह परिवर्तन निर्णय प्रक्रिया को अधिक निष्पक्ष और प्रशासनिक रूप से सक्षम बनाने की दिशा में देखा जा रहा है।

न्याय प्रक्रिया के दृष्टिकोण से यह अधिनियम एक बड़ा बदलाव लेकर आया है। पुराने कानून में ट्रिब्यूनल के निर्णयों को अंतिम मानते हुए उन पर किसी भी उच्च न्यायालय में अपील की अनुमति नहीं थी। केवल विशेष परिस्थितियों में ही हाई कोर्ट को हस्तक्षेप का अधिकार था। अब नए विधेयक में यह प्रावधान समाप्त कर दिया गया है और किसी भी ट्रिब्यूनल के निर्णय के विरुद्ध 90 दिनों के भीतर उच्च न्यायालय में अपील की अनुमति दी गई है, जिससे न्यायिक समीक्षा का अधिकार सुरक्षित हो गया है।
केंद्र सरकार को भी इस कानून के अंतर्गत वक्फ से जुड़ी गतिविधियों पर अधिक नियंत्रण देने का प्रयास किया गया है। अब केंद्र को वक्फ की पंजीकरण प्रक्रिया, लेखा प्रकाशन और वक्फ बोर्ड की कार्यवाही के प्रकाशन से जुड़े नियम बनाने की शक्ति दी गई है। इसके साथ ही सरकार को यह भी अधिकार दिया गया है कि वह वक्फ खातों का ऑडिट कम्पट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल (सीएजी) या किसी अन्य अधिकारी से करवा सकती है। यह व्यवस्था वक्फ संपत्तियों की पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए अहम मानी जा रही है।
अंततः सबसे उल्लेखनीय बदलाव वक्फ बोर्डों की बहुलता को लेकर है। पहले यदि किसी राज्य में वक्फ आय में शिया वक्फ का हिस्सा 15 प्रतिशत से अधिक होता था, तभी शिया और सुन्नी के लिए अलग-अलग वक्फ बोर्ड बनाने की अनुमति थी। अब नए कानून में शिया और सुन्नी के साथ-साथ बोहरा और आगाखानी संप्रदायों के लिए भी अलग-अलग वक्फ बोर्ड गठित करने की अनुमति दी गई है। इससे विभिन्न मुस्लिम समुदायों की धार्मिक और सामाजिक व्यवस्थाओं को अलग पहचान मिलने की दिशा में रास्ता साफ हुआ है।
अगर केंद्र सरकार इस नए वक्फ कानून को पूरी निष्पक्षता, पारदर्शिता और जवाबदेही के साथ लागू करने में सफल रहती है, तो यह निस्संदेह वक्फ संपत्तियों के कुशल और व्यवस्थित प्रबंधन की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम साबित हो सकता है। इस कानून के प्रावधान जहां प्रशासनिक सुधारों और स्पष्ट दिशा-निर्देशों की ओर संकेत करते हैं, वहीं इससे लंबे समय से चले आ रहे कई विवादों का समाधान भी संभव हो सकता है। लेकिन जिस प्रकार से इसका विरोध हो रहा है, और जिस तरह से यह मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच चुका है, वह इस कानून की राह को फिलहाल आसान नहीं बनाते। अब देखना यह होगा कि सरकार इन चुनौतियों को कैसे पार करती है और इसे ज़मीन पर प्रभावी रूप से लागू कर पाती है या नहीं।