नई दिल्ली(स्वाती गुप्ता)। केंद्र सरकार द्वारा हाल ही में अधिसूचित किए गए वक्फ (संशोधन) अधिनियम को लेकर देशभर में सियासी तूफान मचा हुआ है। खासकर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के उस बयान के बाद से विवाद और भी गहराता जा रहा है, जिसमें उन्होंने साफ-साफ कह दिया कि यह अधिनियम राज्य में लागू नहीं किया जाएगा। यह बयान ऐसे वक्त में आया है जब यह विधेयक लोकसभा और राज्यसभा दोनों से पारित होकर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की मंजूरी प्राप्त कर चुका है और 8 अप्रैल से इसकी अधिसूचना भी जारी की जा चुकी है। केंद्र के स्पष्ट आदेश के बावजूद यदि कोई राज्य इसे लागू करने से इंकार करता है, तो यह न केवल संवैधानिक व्यवस्था को चुनौती देने जैसा है, बल्कि इससे पूरे देश में एक असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। ममता बनर्जी की इस घोषणा के बाद बंगाल के कई इलाकों, विशेष रूप से मुर्शिदाबाद, में वक्फ अधिनियम के खिलाफ जबरदस्त विरोध प्रदर्शन देखने को मिला, जहां शुक्रवार को हिंसा में तीन लोगों की जान चली गई। ऐसे में अब यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या कोई राज्य सरकार केंद्र के द्वारा पारित कानून को नकार सकती है?

संविधान की स्पष्ट व्यवस्था के तहत जब संसद कोई कानून पारित करती है, विशेष रूप से उन विषयों पर जो समवर्ती सूची में आते हैं, तो उस कानून को देश के सभी राज्यों में लागू करना अनिवार्य हो जाता है। वक्फ अधिनियम इसी श्रेणी में आता है, क्योंकि यह संविधान की समवर्ती सूची की प्रविष्टि 28 के तहत आता है, जहां केंद्र और राज्य दोनों को कानून बनाने का अधिकार है। लेकिन यदि दोनों स्तरों पर बने कानूनों में कोई टकराव हो, तो संविधान के अनुच्छेद 254 के अनुसार केंद्र का कानून सर्वाेपरि होता है, जब तक कि राज्य द्वारा पारित कानून को राष्ट्रपति की विशेष स्वीकृति प्राप्त न हो। इसलिए यदि किसी राज्य की सरकार यह दावा करती है कि वह केंद्र के बनाए किसी कानून को लागू नहीं करेगी, तो वह संवैधानिक ढांचे का उल्लंघन कर रही होती है। इस मुद्दे को लेकर भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी ने तीखी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि अगर ममता बनर्जी और उनकी पार्टी इसी प्रकार संविधान को ताक पर रखकर शासन चलाती रही, तो इससे संविधान की मूल आत्मा खतरे में पड़ जाएगी और यह बी.आर. आंबेडकर के विचारों का अपमान भी होगा।

हाल ही में झारखंड से भी एक विवादित बयान सामने आया, जब झामुमो के विधायक और झारखंड सरकार में मंत्री हफीजुल हसन ने कथित रूप से कहा कि उनके लिए शरिया पहले है और संविधान बाद में। वहीं कर्नाटक के मंत्री बी जेड जमीर अहमद खान ने भी वक्फ संशोधन कानून को राज्य में लागू न करने की बात कह दी। ऐसे बयान न केवल संविधान की अवहेलना हैं, बल्कि इससे देश के संघीय ढांचे पर भी प्रश्नचिह्न लग जाता है। सुधांशु त्रिवेदी का कहना है कि संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के जरिए केंद्र, राज्य और पंचायतों की शक्तियां स्पष्ट कर दी गई हैं। कोई भी पंचायत राज्य सरकार के कानून से ऊपर नहीं जा सकती और राज्य सरकारें भी संसद द्वारा पारित किसी अधिनियम को दरकिनार नहीं कर सकतीं। उनके अनुसार, अगर राज्य सरकारों को किसी कानून से असहमति है, तो उनके पास अदालत का दरवाजा खटखटाने का अधिकार है, न कि खुलेआम उस कानून को न मानने का ऐलान करने का।

इस पूरे विवाद के बीच यह बात बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है कि केंद्र सरकार ने जिस कानून को पूरे देश के लिए लागू किया है, उसे कुछ राज्यों द्वारा नकारने की प्रवृत्ति खतरनाक मिसाल बन सकती है। अगर हर राज्य यह तय करने लगे कि कौन सा केंद्रीय कानून उनके यहां लागू होगा और कौन सा नहीं, तो इससे भारत जैसे संघीय गणराज्य की एकता और अखंडता पर गंभीर संकट उत्पन्न हो सकता है। वक्फ अधिनियम को लेकर ममता बनर्जी की मुखरता ने राजनीतिक तापमान को जरूर बढ़ा दिया है, लेकिन इसके संवैधानिक निहितार्थ बहुत व्यापक हैं। अगर यह रवैया आगे भी जारी रहा, तो आने वाले समय में केंद्र और राज्यों के बीच टकराव और अधिक गहराने की आशंका बन सकती है। खासकर जब एक ओर केंद्र वक्फ संपत्तियों के पारदर्शी प्रबंधन की दिशा में कड़े कदम उठा रहा है, वहीं दूसरी ओर कुछ राज्य सरकारें अपने वोट बैंक की राजनीति के चलते इसे सिरे से खारिज करने पर आमादा हैं। यह न केवल विधायी व्यवस्था को कमजोर करता है, बल्कि इससे देश में कानून के शासन की अवधारणा पर भी आघात पहुंचता है।