हरिद्वार(सुरेन्द्र कुमार)। पवित्र भूमि, जहां मां गंगा की निर्मल धारा से करोड़ों श्रद्धालु कांवड़ यात्रा की शुरुआत करते हैं, आज वहां अव्यवस्था और अनैतिक गठजोड़ का अंधकार गहराता जा रहा है। हर साल विश्व का सबसे विशाल धार्मिक मेला माने जाने वाला कांवड़ मेला यहां आयोजित होता है, जिसमें शिवभक्त दूर-दूर से आकर आस्था का जल अर्पित करते हैं। लेकिन इसी आस्था के संगम में अब अवैध वसूली, अतिक्रमण और ठेकेदारों-अधिकारियों की मिलीभगत की गंदगी बहती दिखाई दे रही है। जिस हर की पौड़ी को श्रद्धा और संस्कार का प्रतीक माना जाता रहा है, वही आज कथित रूप से अवैध कमाई का केंद्र बन चुकी है।
श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए जो तख्त हर साल नगर निगम द्वारा निशुल्क लगाए जाते हैं, उन्हीं तख्तों का अब बाजार सज चुका है। पहले जहां इनका उपयोग कपड़े, थैले या सामान रखने के लिए होता था, वहीं अब वही तख्त निजी ठेके पर दो लाख रुपये तक की कीमत में किराए पर दिए जा रहे हैं। यह व्यवस्था न केवल पूरी तरह से अनैतिक है, बल्कि इसका संचालन करने वाले वह दलाल और अधिकारी भी संदेह के घेरे में हैं, जो श्रद्धा के नाम पर इस गोरखधंधे को बढ़ावा दे रहे हैं। सवाल यह उठता है कि आखिर यह तख्त सौंपता कौन है? नगर निगम की आंखों के सामने किसकी मिलीभगत से हर की पौड़ी पर हर साल ये दुकानें सजी जाती हैं? और यह पूरा खेल इतनी सफाई से चलता है कि प्रशासन की आंखें शायद इसे देखना ही नहीं चाहतीं।
बात जब अतिक्रमण हटाने की आती है तो निर्देशों की भरमार होती है। जिला गंगा संरक्षण समिति की बैठक में जिलाधिकारी द्वारा एसपी सिटी, सिटी मजिस्ट्रेट, सिंचाई विभाग और नगर आयुक्त को स्पष्ट आदेश जारी किए गए कि हर की पौड़ी से अवैध कब्जे हटाए जाएं। लेकिन हकीकत में यह आदेश फाइलों तक सीमित रह गया। न तो कोई ठेकेदार सामने आया, न ही किसी दुकान को हटाया गया। बल्कि उल्टा, उन्हीं तख्तों पर अब स्थायी दुकानें सजने लगी हैं। प्रशासन के आदेशों की यह अवहेलना यही दर्शाती है कि व्यवस्था में कहीं न कहीं कोई बहुत गहरी साजिश पनप चुकी है।

पर्यावरण संरक्षण और कानून का पालन, दोनों ही बातें हरिद्वार में फिलहाल बेमानी लगती हैं। प्लास्टिक और पॉलीथीन पर पूर्ण प्रतिबंध के बावजूद, हर की पौड़ी पर खुलेआम पॉलीथीन में सामान बेचा जा रहा है। गंगा की स्वच्छता और पर्यावरणीय संतुलन की बात करने वाले अधिकारी इस मुद्दे पर पूरी तरह मौन हैं। यह चुप्पी महज अनदेखी नहीं लगती, बल्कि एक सोची-समझी चुप्पी है, जो व्यवस्था की सहमति को दर्शाती है। जब हर की पौड़ी जैसी आस्था की भूमि पर ही पर्यावरणीय नियमों का मज़ाक उड़ाया जाए, तो बाकी स्थानों की स्थिति का अंदाजा स्वतः लगाया जा सकता है।
जब नगर निगम से इन तख्तों की जानकारी मांगी गई, तो उनका जवाब वही पुराना और घिसा-पिटा रहाकृ “हमने हटाने के आदेश दे दिए हैं।” पर यह उत्तर हर उस सवाल का अपमान है, जो श्रद्धालुओं के मन में उठ रहे हैं। वर्षों से जो तख्त निशुल्क सेवा के नाम पर लगाए जाते रहे, वे अचानक निजी व्यापार में कैसे तब्दील हो जाते हैं? नगर निगम को क्या यह नहीं पता कि तख्तों की यह खरीद-फरोख्त किसने और किनके माध्यम से की? या फिर यह सब जानते हुए भी उन्होंने आंखें मूंद रखी हैं? यह सवाल सिर्फ नगर निगम की कार्यशैली पर नहीं, बल्कि उनकी नीयत पर भी बड़ा प्रश्नचिह्न लगाता है।
हर की पौड़ी, जिसे श्रद्धालु मोक्ष प्राप्ति का पावन द्वार मानते हैं, आज उसी भूमि पर भ्रष्टाचार ने गहरी जड़ें जमा ली हैं। यह स्थिति केवल कुछ अधिकारियों की लापरवाही नहीं, बल्कि श्रद्धा और व्यवस्था के साथ सुनियोजित विश्वासघात का उदाहरण बनती जा रही है। जिस जगह पर आस्था सर्वाेपरि मानी जाती थी, वहां अब अवैध वसूली, अतिक्रमण और सरकारी चुप्पी की त्रिकोणीय साज़िश पनप चुकी है। नगर निगम हो, पुलिस प्रशासन हो या सिंचाई विभागकृहर जिम्मेदार संस्था या तो मौन है या जानबूझकर इस पूरे षड्यंत्र को अनदेखा कर रही है। यह एक सामान्य प्रशासनिक भूल नहीं, बल्कि एक ऐसा संकट है, जो भारत की धार्मिक पहचान और विश्वास पर सीधा आघात करता है। अब अनिवार्य हो गया है कि इस पूरे मामले की निष्पक्ष और गहन जांच हो, दोषियों की पहचान की जाए और कड़ी जवाबदेही तय की जाए।

यह मामला महज कुछ तख्तों के कब्जे का नहीं, बल्कि देश की गहराई से जुड़ी आस्था, प्रशासनिक जवाबदेही और धार्मिक आयोजनों की शुचिता पर सीधा प्रहार है। अगर हर की पौड़ी जैसी दिव्य और पूजनीय जगह भी भ्रष्टाचार, ठेकेदारों और अधिकारियों के गठजोड़ से नहीं बच सकी, तो अन्य तीर्थस्थलों की पवित्रता की रक्षा कैसे संभव होगी? यह केवल एक स्थानीय अनियमितता नहीं, बल्कि उस पूरे ढांचे को आईना दिखाने वाली स्थिति है, जो आस्था की रक्षा के दावे करता है। जब सेवा के नाम पर श्रद्धालुओं की भावनाओं का व्यापार खुलेआम हो रहा हो, तब यह प्रश्न अनदेखा नहीं किया जा सकता। ऐसी घटनाएं सिर्फ खबर नहीं, प्रशासनिक और सामाजिक चेतना का झटका होनी चाहिए, ताकि आने वाली पीढ़ियों को हम एक निष्कलंक और श्रद्धायुक्त व्यवस्था सौंप सकें। यह अब चेतावनी बनकर सामने है।
अगर हालात यथावत रहे और प्रशासन ने अब भी आंखें मूंदे रखीं, तो वह समय दूर नहीं जब हर की पौड़ी, जो कभी श्रद्धा और संस्कृति की मिसाल मानी जाती थी, भ्रष्टाचार की शर्मनाक पहचान बनकर रह जाएगी। यह केवल अवैध तख्तों या अतिक्रमण की समस्या नहीं, बल्कि एक पूरी आस्था प्रणाली की नींव को हिला देने वाला संकट है। यहां तख्तों की बोली नहीं लग रही, बल्कि करोड़ों लोगों की धार्मिक भावनाएं सस्ते सौदों में बेच दी जा रही हैं। आस्था को जब ठेके पर चढ़ाया जाता है, तो यह केवल नियमों का उल्लंघन नहीं, बल्कि देश की आत्मा को गहरी चोट देना है। यह गहराता अंधकार अब एक सख्त, पारदर्शी और निर्णायक कार्रवाई की मांग कर रहा है, ताकि हर की पौड़ी की गरिमा को बचाया जा सके और लोगों का भरोसा फिर से जीवित हो सके।