हरिद्वार(सुरेन्द्र कुमार)। श्रद्धा की विशालता और भक्ति के सैलाब के बीच हरिद्वार में समाप्त हुई श्रावण शिवरात्रि की कांवड़ यात्रा ने एक गहरी छाप छोड़ दी है, लेकिन यह छाप केवल आस्था की नहीं, बल्कि हर गली, घाट और बाजार में पसरे कचरे की भी बन गई है। करीब 4 करोड़ कांवड़ यात्रियों की मौजूदगी ने इस आध्यात्मिक नगरी को भक्तिमय बना दिया था, परंतु उनके जाने के बाद जो हजारों टन अपशिष्ट सामग्री पीछे रह गई, उसने पूरे नगर प्रशासन के सामने सफाई को लेकर एक कठिन संकट खड़ा कर दिया है। घाटों पर बिखरी पॉलिथीन, सड़कों पर बचे भोजन के पैकेट, और बाजारों में फैला प्लास्टिक अब एक कड़वी सच्चाई बनकर प्रशासनिक सक्रियता की परीक्षा ले रहा है। हरिद्वार की सड़कों से लेकर घाटों तक, हर कोने पर बिखरा यह कूड़ा न केवल सौंदर्य बिगाड़ रहा है, बल्कि पर्यावरणीय खतरे की घंटी भी बजा रहा है।
हर की पौड़ी से लेकर कांवड़ मार्ग के 42 किलोमीटर लंबे क्षेत्र तक फैले इस अपार कचरे से निपटने के लिए हरिद्वार जिला प्रशासन ने कमर कस ली है। प्रशासन ने इस विशेष परिस्थिति को संभालने के लिए 1000 से ज्यादा सफाई कर्मचारियों को तैनात किया है। घाटों पर अब न केवल बांस की टूटी लकड़ियाँ, अधजले कपड़े, और गीले भोजन के अवशेष नजर आ रहे हैं, बल्कि नालियों में अवरोध और बदबू ने भी जनजीवन को प्रभावित करना शुरू कर दिया है। हरिद्वार नगर निगम के कर्मचारी दिन-रात युद्ध स्तर पर सफाई कार्यों में जुटे हुए हैं, परंतु काम की व्यापकता को देखते हुए यह कार्य सप्ताहों तक चल सकता है। श्रद्धा की इस भीड़ ने गंगा के तटों को जिस रूप में छोड़ा है, उससे निपटना आसान नहीं होने वाला।

कांवड़ मेला नियंत्रण कक्ष के अनुसार 11 जुलाई से लेकर शिवरात्रि तक करीब 40 मिलियन श्रद्धालु हरिद्वार पहुंचे। अंतिम दो दिनों में, जब शिवरात्रि समीप थी, तब भीड़ का दबाव चरम पर पहुंच गया था। यही वे क्षण थे जब पूरे नगर की व्यवस्था पूरी तरह चरमराई नजर आई। श्रद्धालुओं के लौटने के बाद बुधवार को जब सड़कों और घाटों का हाल देखा गया, तो हर ओर कूड़े के ढेर, बिखरी बोतलें, फटे कपड़े और गलियों में बहता गंदा पानी नगर की बदहाल स्थिति बयान कर रहा था। यातायात मार्गों के किनारे कूड़ा फेंका गया, पार्किंग स्थानों पर भी गंदगी बेतरतीब फैली थी, और घाटों की सीढ़ियों तक कचरे से अटी पड़ी थीं। प्रशासन के लिए यह केवल एक सफाई मिशन नहीं, बल्कि हरिद्वार की प्रतिष्ठा को बचाने की एक बड़ी चुनौती बन गई है।
नगर निगम के आयुक्त नंदन कुमार ने कहा कि सफाई कार्य को व्यवस्थित करने के लिए विशेष रणनीति बनाई गई है, और सफाईकर्मियों की संख्या को दोगुना करते हुए उन्हें गंगा घाटों और प्रमुख मार्गों पर लगातार सेवा में लगाया गया है। उन्होंने बताया कि मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के ‘हरित और स्वच्छ कांवड़ मेला’ अभियान के तहत पूर्व तैयारी की गई थी, परंतु वास्तविकता यह है कि श्रद्धालुओं की अत्यधिक संख्या के चलते कूड़ा अनुमान से कहीं ज्यादा निकल कर सामने आया। उन्होंने यह भी जोड़ा कि एकत्रित कचरे की मात्रा की गणना कर रिपोर्ट बुधवार शाम तक सौंप दी जाएगी, ताकि आगे की रणनीति ठोस बनाई जा सके।

स्थानीय निवासी अरुण ओहरी ने बताया कि मानसून की बारिश ने कुछ गंदगी जरूर बहा दी, लेकिन यदि बारिश न होती तो हालात और भी अधिक खराब हो सकते थे। उनके अनुसार सार्वजनिक शौचालयों, राजमार्गों और कांवड़ मार्गों के किनारे अभी भी कूड़े के अंबार लगे हैं। उन्होंने कहा कि केवल सफाईकर्मियों पर निर्भर रहकर यह चुनौती पूरी नहीं की जा सकती, आम जनता और कांवड़ियों को भी गंगा की पवित्रता के साथ उसके तटों की गरिमा को समझना होगा। स्थानीय नागरिकों की भावना यही है कि सफाई एक सामूहिक जिम्मेदारी है, जिसमें श्रद्धालुओं की भूमिका भी अहम होनी चाहिए।
अनूप नौटियाल, जो सामाजिक विकास के लिए कार्यरत एक प्रमुख संगठन के प्रमुख हैं, उन्होंने सरकार से मांग की कि धार्मिक स्थलों पर इस प्रकार के आयोजनों के लिए निजी कंपनियों, गैर-सरकारी संगठनों और ब्ैत् भागीदारों के सहयोग से एक पेशेवर सफाई तंत्र विकसित किया जाए। उन्होंने यह भी कहा कि जब तक उत्तराखंड की स्थानीय निकायें तकनीकी संसाधनों और प्रशिक्षित सफाईकर्मियों से पूरी तरह सुसज्जित नहीं होंगी, तब तक हर वर्ष यही संकट दोहराया जाएगा और पर्यावरणीय संकट गहराता चला जाएगा।

गंगा तटों पर वर्षों से धार्मिक अनुष्ठानों से जुड़े वरिष्ठ तीर्थ पुरोहित प्रदीप झा ने इस विषय पर चिंता जताते हुए कहा कि श्रद्धा और भक्ति के इस महापर्व के साथ-साथ अब समय आ गया है जब हमें गंगा के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को भी उतनी ही गंभीरता से समझना होगा। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि जब करोड़ों लोग आस्था के भाव से गंगा में डुबकी लगाने आते हैं, तो उन्हें यह भी सिखाया जाना चाहिए कि वे पीछे स्वच्छता और पर्यावरण का सम्मान छोड़कर जाएं। प्रदीप झा का मानना है कि हर कांवड़ यात्री को पर्यावरणीय शिष्टाचार, कचरा प्रबंधन और गंगा तटों की मर्यादा के प्रति जागरूक किया जाना जरूरी है। उन्होंने कहा, “गंगा केवल पूजन की नहीं, बल्कि संरक्षण की भी पात्र है। यदि हम उसे साफ और निर्मल नहीं रख पाए, तो हमारी श्रद्धा अधूरी और खोखली रह जाएगी।” उनका यह संदेश न केवल हरिद्वार के लिए, बल्कि पूरे भारत के तीर्थ स्थलों के लिए अत्यंत सामयिक और आवश्यक प्रतीत होता है।
हरिद्वार में कांवड़ यात्रा के समापन के बाद उत्पन्न हुई यह भयावह स्थिति मात्र एक नगर की समस्या नहीं, बल्कि पूरे देश के उन धार्मिक स्थलों के लिए एक गंभीर चेतावनी है, जो हर वर्ष करोड़ों श्रद्धालुओं को आमंत्रित करते हैं। यदि आज के दौर में सरकारें, स्थानीय प्रशासन, सामाजिक संगठन और आम नागरिक मिलकर कोई स्थायी और ठोस नीति नहीं अपनाते, तो भविष्य में ये स्थल सिर्फ श्रद्धा के नहीं, बल्कि कचरे और अव्यवस्था के केंद्र बनते जाएंगे। गंगा जैसी पुण्यधारा, जिसे हम मोक्षदायिनी मानते हैं, उसके किनारे यदि दुर्गंध, गंदगी और अपशिष्ट का अंबार दिखे तो यह न सिर्फ पर्यावरणीय विफलता होगी, बल्कि हमारी आस्था का भी अपमान होगा। इस बार हरिद्वार में जो कुछ हुआ, वह आने वाले समय के लिए साफ संकेत है कि अगर समय रहते व्यवस्था नहीं सुधारी गई, तो गंगा पवित्रता से अधिक प्रशासनिक असफलता का प्रतीक बन जाएगी और यह पूरे देश के लिए चिंता का विषय बन जाएगा।

शिवभक्ति और पर्यावरण संरक्षण—ये दो ऐसे स्तंभ हैं, जो भारतीय आध्यात्मिक चेतना की आत्मा माने जाते हैं। परंतु जब कांवड़ यात्रा जैसे विशाल धार्मिक आयोजनों के बाद गंगा के घाटों पर प्लास्टिक, कचरा, पॉलीथिन और गंदगी के ढेर देखने को मिलते हैं, तो एक गंभीर प्रश्न उठता है—क्या इसे ही भक्ति कहा जाएगा? शिव को जल अर्पित करने की परंपरा को निभाते हुए जब हम उन्हीं की प्रिय नदी को प्रदूषित कर देते हैं, तब क्या वह आस्था अधूरी नहीं रह जाती? भक्ति केवल नारे लगाने, डीजे पर नाचने या भीड़ में दौड़ लगाने से पूरी नहीं होती। सच्ची श्रद्धा तब सिद्ध होती है जब हम अपने व्यवहार में स्वच्छता, अनुशासन और ज़िम्मेदारी को अपनाते हैं। क्या भगवान शिव, जो स्वयं हिमालय, वन और नदियों के रक्षक माने जाते हैं, उनसे प्रेम करने का अर्थ यह नहीं कि हम प्रकृति को भी उसी श्रद्धा से देखें? अब समय आ गया है कि हर विवेकशील श्रद्धालु इस बात पर आत्ममंथन करे कि क्या उसकी भक्ति में पर्यावरण के प्रति दायित्व शामिल है या वह केवल दिखावे की दौड़ बनकर रह गई है।
हर की पौड़ी, जहां कभी ‘बोल बम’ की गूंज गगन चीरती थी, आज वहां प्लास्टिक की थैलियां, टूटी चप्पलें और कूड़े के ढेर अपनी खामोश गवाही दे रहे हैं कि श्रद्धा के नाम पर मर्यादा को रौंदा गया है। तीर्थनगरी हरिद्वार, जिसे दिव्यता और पवित्रता का प्रतीक माना जाता है, आज कचरे के नीचे कराह रही है। सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि मेला प्रशासन, नगर निगम और सफाई व्यवस्था से जुड़े जिम्मेदार अधिकारी अब तक चुप्पी साधे हुए हैं, मानो उन्हें इस दृश्य की कोई खबर ही न हो। न कोई स्वच्छता अभियान शुरू हुआ, न ही कोई सख्त चेतावनी जारी की गई। लगता है मानो पूरा सिस्टम कुंभकर्णी नींद में डूबा है, जबकि पवित्र घाट और धार्मिक स्थल अपनी अस्मिता के लिए पुकार रहे हैं। श्रद्धालुओं ने बड़ी संख्या में आकर अपनी आस्था का प्रदर्शन तो किया, परंतु धर्म की आत्मा—स्वच्छता, शुचिता और ज़िम्मेदारी—को पूरी तरह अनदेखा कर दिया। यह स्थिति न केवल तीर्थ की मर्यादा पर प्रश्नचिन्ह लगाती है, बल्कि प्रशासनिक उदासीनता की शर्मनाक तस्वीर भी उजागर करती है, जिससे धर्मनगरी की गरिमा तार-तार हो रही है।