रामनगर। रामदत्त संयुक्त चिकित्सालय से जुड़े लगभग 250 कर्मचारियों की उम्मीदें और रोज़गार एक झटके में छिन गए, जब सरकार ने अस्पताल को पीपीपी मॉडल से हटाकर दोबारा सरकारी नियंत्रण में ले लिया। बिना किसी पूर्व चेतावनी या वैकल्पिक योजना के, इन कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया गया, जिससे उनके परिवारों पर संकट छा गया है। जिन लोगों ने कोरोना जैसी जानलेवा महामारी के दौरान अस्पताल में दिन-रात सेवा दी, उन्हें आज एक झटके में बेरोजगार बना दिया गया है। इनमें नर्सिंग स्टाफ, लैब टेक्नीशियन, वार्ड बॉय, सफाईकर्मी से लेकर प्रशासनिक पदों तक के लोग शामिल हैं। बेरोजगारी के कारण इन लोगों की आजीविका पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है। बुधवार को अस्पताल के समीप इकट्ठा होकर इन कर्मचारियों ने प्रदर्शन किया और सरकार के खिलाफ जोरदार नारेबाजी करते हुए अपनी बहाली की मांग उठाई।
इस पूरे घटनाक्रम की पृष्ठभूमि पर नज़र डालें तो वर्ष 2020 में उत्तराखंड सरकार ने रामदत्त संयुक्त चिकित्सालय को पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप यानी पीपीपी मोड पर देने का फैसला लिया था, जिसका उद्देश्य अस्पताल की स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार करना था। शुरुआती दावों और योजनाओं के बावजूद यह प्रयोग व्यावहारिक स्तर पर बुरी तरह असफल रहा। अस्पताल में बार-बार आई अव्यवस्थाओं ने लोगों की उम्मीदों को तोड़ दिया और यह स्वास्थ्य केंद्र विवादों और आलोचनाओं का केंद्र बन गया। स्थानीय नागरिकों और जनप्रतिनिधियों ने समय-समय पर इसका विरोध किया। लैंसडाउन से भाजपा विधायक महंत दिलीप सिंह रावत ने भी सरकार को इस मॉडल को समाप्त करने की सिफारिश करते हुए पीपीपी तंत्र की असफलता को लेकर सवाल खड़े किए थे। उनकी आवाज़ में आम जनता की भावना जुड़ गई थी।
लगातार बढ़ते विरोध और जनता के दबाव को देखते हुए प्रदेश सरकार ने आखिरकार 1 अप्रैल 2025 को इस अस्पताल को पुनः अपने नियंत्रण में ले लिया। लेकिन सरकारी तंत्र के अधीन आने के बाद भी अब तक व्यवस्थाएं पूरी तरह सामान्य नहीं हो सकी हैं। पीपीपी के अंतर्गत कार्यरत संस्था ने अब तक अस्पताल की कुछ महत्वपूर्ण मशीनें और संसाधन सरकार को सुपुर्द नहीं किए हैं, जिससे मरीजों के इलाज में दिक्कतें आ रही हैं। ऐसे में स्वास्थ्य सेवाओं के मानकों में सुधार की उम्मीद अब भी अधूरी दिख रही है। सरकार भले ही पीपीपी मॉडल से हट चुकी हो, लेकिन इसके अवशेष अभी भी अस्पताल की कार्यशैली में उलझन पैदा कर रहे हैं, जिससे मरीजों और स्टाफ दोनों को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।
इस ट्रांजिशन का सबसे बड़ा नुकसान अस्पताल में कार्यरत 300 में से लगभग 250 कर्मचारियों को हुआ, जो सीधे-सीधे काम से निकाल दिए गए। इन लोगों का आरोप है कि सरकार ने उनके भविष्य की कोई परवाह किए बिना अचानक उन्हें बेरोजगार कर दिया। उनका कहना है कि यदि उन्हें पहले से सूचना दी जाती, तो वे किसी अन्य नौकरी या विकल्प की तलाश कर सकते थे। कई कर्मचारियों ने बिना डिग्री के भी सेवा दी थी और मुश्किल समय में अस्पताल की रीढ़ बने हुए थे। अब वही लोग बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं और उन्हें किसी निजी अस्पताल में भी नौकरी नहीं मिल पा रही है। इनके लिए रोजमर्रा की जरूरतें पूरी करना चुनौती बन गया है और वे खुद को पूरी तरह असहाय महसूस कर रहे हैं।
धरना प्रदर्शन कर रहे कर्मचारियों ने सरकार से मांग की है कि या तो उन्हें पूर्ववत पीपीपी मॉडल पर बहाल किया जाए जिससे उनकी नौकरी सुरक्षित हो सके या फिर उनके लिए कोई स्थायी रोजगार योजना बनाई जाए। उनका कहना है कि अगर सरकार जल्द कोई समाधान नहीं निकालती है तो वे आगे और तीव्र आंदोलन करेंगे और यह संघर्ष उग्र रूप ले सकता है। प्रदर्शनकारियों का यह भी कहना है कि उन्होंने वर्षों तक कम वेतन में सेवाएं दी हैं, लेकिन जब उनके अनुभव का समय आया तो सरकार ने उन्हें दरकिनार कर दिया। उन्होंने प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री डॉ. धन सिंह रावत से मांग की है कि वे व्यक्तिगत रूप से इस मामले में हस्तक्षेप करें और बेरोजगार कर्मियों के लिए कोई व्यावहारिक और स्थायी समाधान खोजें।
अस्पताल के मुख्य चिकित्सा अधीक्षक डॉ. विनोद टम्टा ने कहा है कि कर्मचारियों की समस्या को लेकर उच्चाधिकारियों को अवगत कराया गया है और उनके निर्देशों के अनुसार आगे की कार्यवाही की जाएगी। हालांकि फिलहाल इस दिशा में कोई स्पष्ट निर्णय सामने नहीं आया है। इस पूरे मसले ने राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर सरकार की नीतियों पर सवाल खड़ा कर दिया है। जहां एक ओर अस्पताल की स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारने के नाम पर पीपीपी मॉडल अपनाया गया, वहीं दूसरी ओर बिना किसी वैकल्पिक व्यवस्था के कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखाकर सरकार ने अपनी जवाबदेही से पल्ला झाड़ लिया है। अब देखना होगा कि प्रदेश सरकार इन कर्मचारियों की समस्याओं का क्या हल निकालती है या फिर यह आंदोलन और तीव्र रूप लेता है।