रामनगर। उत्तराखंड की स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारने के नाम पर PPP (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) मॉडल को अपनाने का जो प्रयोग किया गया, वह रामनगर में पूरी तरह फेल होता दिख रहा है। रामनगर संयुक्त चिकित्सालय अब अस्पताल कम और ‘रेफर सेंटर’ ज्यादा बन चुका है। मरीजों को इलाज देने की बजाय उन्हें हल्द्वानी या देहरादून भेजना आम बात हो गई है। इस अव्यवस्था के खिलाफ जनता सड़कों पर उतर आई है। पूर्व ब्लॉक प्रमुख संजय नेगी ने 24 घंटे का जल त्याग कर अनशन किया और फिर अपने समर्थकों संग प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री डॉ. धन सिंह रावत का पुतला जलाकर साफ संदेश दे दिया कि अब ये अन्याय बर्दाश्त नहीं होगा।
नेगी ने तीखे शब्दों में सरकार पर हमला बोलते हुए कहा, “रामनगर अस्पताल अब इलाज नहीं करता, यह सिर्फ मरीजों को ‘रेस्क्यू’ करता है। मरीजों के लिए यहाँ दो ही विकल्प हैं—या तो हल्द्वानी रेफर हो जाओ या फिर सीधे हरिद्वार घाट। मंत्री जी का हेल्थ मॉडल दवाई और डॉक्टर से नहीं, बल्कि एंबुलेंस और रेफरल सिस्टम से चलता है। अस्पताल में मरीजों के लिए बुनियादी सुविधाएँ तक नहीं हैं। डॉक्टरों की भारी कमी है और जो स्टाफ यहाँ तैनात है, वे मरीजों से इस तरह व्यवहार करते हैं, मानो ये मुफ्त की बला गले पड़ गई हो।”
सरकार यह दावा कर रही है कि PPP (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) मॉडल से अस्पतालों की व्यवस्थाएं सुधरेंगी और मरीजों को बेहतर इलाज मिलेगा। लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही बयां कर रही है। खासतौर पर रामनगर संयुक्त चिकित्सालय की स्थिति बद से बदतर हो गई है। अस्पताल में न तो पर्याप्त दवाइयाँ उपलब्ध हैं, न डॉक्टर, और न ही मरीजों की देखभाल के लिए जरूरी सुविधाएँ। मरीजों को एक्स-रे और अल्ट्रासाउंड जैसी बुनियादी सुविधाओं तक के लिए घंटों इंतजार करना पड़ता है। कई बार तो मशीनें खराब पड़ी रहती हैं या फिर जानबूझकर प्राइवेट सेंटरों पर भेजा जाता है। ज़रूरत पड़ने पर अस्पताल में कोई विशेषज्ञ डॉक्टर मौजूद नहीं होता, और मरीजों को हल्द्वानी या अन्य बड़े अस्पतालों में रेफर कर दिया जाता है। स्थिति यह हो गई है कि गरीब और जरूरतमंद लोग, जो सरकारी अस्पतालों पर निर्भर रहते थे, अब मजबूरी में महंगे निजी अस्पतालों का रुख करने को विवश हैं। सरकारी दावे और जनता की सच्चाई के बीच गहरी खाई बन चुकी है। रामनगर का अस्पताल अब इलाज का केंद्र नहीं, बल्कि रेफर सेंटर बन गया है। जनता सरकार से सवाल पूछ रही है कि अगर सरकारी अस्पतालों की यही हालत रही, तो आम आदमी आखिर इलाज करवाने कहाँ जाएगा?
स्थानीय लोगों का आरोप है कि सरकार ने यह मॉडल जनता की भलाई के लिए नहीं, बल्कि निजी कंपनियों को फायदा पहुँचाने के लिए लागू किया है। स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण करके सरकार ने गरीबों को भगवान भरोसे छोड़ दिया है। आंदोलन का नेतृत्व कर रहे संजय नेगी ने चेतावनी दी कि अगर जल्द से जल्द इस अस्पताल को PPP से बाहर नहीं निकाला गया, तो आंदोलन को राज्यव्यापी बनाया जाएगा। उन्होंने कहा, “ये आंदोलन सिर्फ रामनगर तक सीमित नहीं रहेगा। उत्तराखंड के हर उस अस्पताल के बाहर प्रदर्शन होगा, जिसे PPP के नाम पर बेच दिया गया है। अगर सरकार को जनता की परवाह नहीं है, तो जनता भी अब सरकार की परवाह नहीं करेगी।”
स्वास्थ्य मंत्री धन सिंह रावत की नीतियों पर जनता ने सवाल उठाते हुए कहा कि वे सिर्फ कागजों में सुधार कर रहे हैं, जबकि जमीनी हकीकत कुछ और ही है। क्षेत्रीय नेताओं का कहना है कि मंत्री जी टीवी पर बैठकर विकास की बातें कर रहे हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर अस्पतालों में डॉक्टर तक नहीं मिलते। यह कैसी स्वास्थ्य नीति है, जिसमें मरीजों को बेहतर इलाज देने की बजाय उन्हें ‘रेफर’ कर दिया जाता है? पुतला दहन कार्यक्रम में शामिल कांग्रेस नेता पुष्कर दुर्गापाल, ताइफ खान, पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष असद अली, सुमित लोहनी, विनोद वर्मा, सभासद तनुज दुर्गापाल, सचिन कुमार, पूर्व ग्राम प्रधान राहुल डंगवाल और अमित कुमार ने एकजुटता दिखाते हुए इस आंदोलन को तेज करने का ऐलान किया। उनका कहना था कि स्वास्थ्य मंत्री केवल नाम के डॉक्टर हैं, असल में उनके फैसले रामनगर की जनता को बीमार ही कर रहे हैं।
जनता ने अब ठान लिया है कि वह इस अन्याय को बर्दाश्त नहीं करेगी। रामनगर के लोगों का कहना है कि उनके धैर्य की परीक्षा अब खत्म हो चुकी है। हर नागरिक को यह हक है कि उसे अपने ही शहर में बेहतर इलाज मिले। रामनगर के नागरिकों ने सरकार को साफ शब्दों में चेतावनी दी है कि अगर PPP मॉडल के तहत चलाए जा रहे अस्पतालों की व्यवस्था तुरंत नहीं सुधारी गई, तो यह आंदोलन और उग्र होगा।
मंत्री जी, ये कैसा हेल्थ मॉडल है, जिसमें मरीज तड़प रहे हैं और आप टीवी पर ताजपोशी का जश्न मना रहे हैं? अस्पतालों में न दवाइयाँ हैं, न डॉक्टर, और न ही बुनियादी सुविधाएँ, लेकिन सरकार इसे सफल हेल्थ मॉडल बताने में जुटी है। रामनगर संयुक्त चिकित्सालय जैसे सरकारी अस्पताल इलाज केंद्र नहीं, बल्कि रेफर सेंटर बन चुके हैं। गरीब जनता, जो सरकारी अस्पतालों पर निर्भर थी, अब निजी अस्पतालों में लूटने को मजबूर है। सरकार को इस फेल हो चुके मॉडल की तत्काल समीक्षा करनी होगी, वरना जनता का आक्रोश और भी विकराल रूप ले सकता है। सवाल साफ है – स्वास्थ्य सुधार की आड़ में आखिर किसका भला हो रहा है, जनता का या प्राइवेट अस्पतालों का?