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सांप्रदायिक आग में घिरे नैनीताल की फिजा में कानून का इकबाल या सिर्फ दिखावे की सख्ती

मासूम से दरिंदगी के बाद शहर में सांप्रदायिक बवाल, फ्लैग मार्च से पुलिस ने जताई सख्ती — लेकिन क्या इंसाफ अब भी सबके लिए बराबर है?

नैनीताल। नैनीताल की पहाड़ियों में शांति की जो चादर सालों से पसरी हुई थी, वह हाल ही की एक दिल दहला देने वाली घटना के बाद इस तरह तार-तार हो गई कि अब हर कोई सिर्फ यही सवाल कर रहा है—क्या अब भी इंसाफ जिंदा है या उसे भी भीड़ की भेंट चढ़ा दिया गया है? एक मासूम बच्ची के साथ घटी अमानवीय दरिंदगी की घटना ने न केवल शहर को दहला दिया बल्कि कानून व्यवस्था की चूकों को भी बेनकाब कर दिया। आरोपी उस्मान की गिरफ्तारी जरूर तेज़ी से हुई, लेकिन इसके बाद जो नज़ारा सामने आया, उसने साबित कर दिया कि समाज की नसों में नफरत कितनी गहराई तक घुस चुकी है। उस्मान की पहचान को लेकर शुरू हुई चर्चा ने देखते ही देखते अराजकता का रूप ले लिया, और कुछ उन्मादी लोगों ने पूरे मुस्लिम समुदाय को कटघरे में खड़ा कर दिया। दुकानों में तोड़फोड़ हुई, लोगों को पीटा गया और शहर के माथे परसांप्रदायिक तनाव की स्याह रेखाएं उभर आईं।

जवाब में प्रशासन की ओर से एक सख्त कार्रवाई का चेहरा फ्लैग मार्च के रूप में सामने आया, जिसमें एसएसपी प्रह्लाद नारायण मीणा की अगुवाई में PAC, SSB और स्थानीय पुलिस टीमों ने पूरे शहर में गश्त की। खड़ी बाजार, बड़ा बाजार, चीनाखान, रिक्शा स्टैंड, माल रोड और घोड़ा स्टैंड जैसे अहम इलाकों में जवानों की परेड ने लोगों को यह संदेश देने की कोशिश की कि कानून अब भी ताकतवर है और अराजकता को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। एसएसपी मीणा ने अपनी संक्षिप्त लेकिन तीखी बातों में साफ कर दिया कि सोशल मीडिया पर अफवाह फैलाने वाले हों या सड़कों पर दंगा फैलाने वाले—किसी को नहीं बख्शा जाएगा। पर सवाल अब केवल इतना नहीं कि कार्रवाई होगी या नहीं, बल्कि यह भी है कि क्या यह कार्रवाई सबके लिए समान होगी या इसमें भी भेदभाव होगा?

कई लोग यह पूछते नज़र आए कि जब बच्ची के साथ दरिंदगी हुई, तब पुलिस की सक्रियता कहां थी? क्यों पहले से ही संवेदनशील माने जाने वाले शहर में सुरक्षा के पर्याप्त इंतज़ाम नहीं थे? और जब दहशत के माहौल में लोग प्रतिशोध की आग में झुलसने लगे, तब पुलिस ने पूरे समुदाय को कटघरे में क्यों खड़ा होने दिया? क्या एक आरोपी की गलती की सज़ा पूरे समाज को देना न्याय है? ये सवाल केवल सड़कों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि सोशल मीडिया, कॉफी हाउस, कॉलेज और घरों तक में गूंज रहे हैं। जनमानस अब वह यकीन खोने लगा है, जिसे कानून का इकबाल कहा जाता है। लोगों की आंखों में डर के साथ-साथ इस बात की बेचैनी भी साफ झलक रही है कि आखिर यह सिस्टम कब सबके लिए एक जैसा होगा?

अगर नैनीताल के नागरिकों की बात की जाए, तो वे अब किसी तात्कालिक कार्रवाई से नहीं, बल्कि एक स्थायी और निष्पक्ष व्यवस्था की उम्मीद लगाए बैठे हैं। फ्लैग मार्च भले ही कुछ घंटों के लिए लोगों को सुकून दे जाए, लेकिन जब तक दोषियों पर बिना किसी धर्म, जाति या पहचान के आधार पर एक समान सख्त कार्रवाई नहीं होती, तब तक यह विश्वास की कड़ी दोबारा नहीं जुड़ सकती। पुलिस प्रशासन को अब यह सिद्ध करना होगा कि उसकी लाठी केवल उन पर नहीं चलती जो कमज़ोर और निरीह हैं, बल्कि उन पर भी चलती है जो इस लाठी की छांव में रहकर नफरत की खेती कर रहे हैं। यह लड़ाई केवल अपराध के खिलाफ नहीं है, बल्कि उस मानसिकता के खिलाफ है जो समाज को टुकड़ों में बांट देना चाहती है।

यह सच है कि नैनीताल केवल एक शहर नहीं है, यह उत्तराखंड की पहचान है, पर्यटन की आत्मा है, और इसकी छवि में आई दरार पूरे प्रदेश की साख पर असर डाल सकती है। अगर यहां सांप्रदायिक तनाव की आग और फैली, तो इसका असर न केवल स्थानीय व्यापार और जीवनशैली पर पड़ेगा, बल्कि उन हजारों पर्यटकों पर भी पड़ेगा जो हर साल इस हिल स्टेशन में चैन की सांस लेने आते हैं। इसलिए जरूरी है कि पुलिस अब महज़ औपचारिक कदमों तक सीमित न रहे, बल्कि उन जड़ों तक पहुंचे जहां से यह नफरत पनप रही है। अफवाह फैलाने वालों की पहचान कर उन्हें कठोर सज़ा दी जाए और यह साबित किया जाए कि नैनीताल का कानून किसी एक धर्म का नहीं, बल्कि सबके लिए बराबर है।

अब वक्त है कि पुलिस और प्रशासन अपनी साख को दोबारा स्थापित करें—ऐसे फैसलों और कार्रवाइयों से, जो केवल दिखावे तक सीमित न हों, बल्कि जिनमें न्याय की स्पष्ट झलक हो। जनता अब केवल आश्वासन नहीं चाहती, वह कार्रवाई देखना चाहती है। अगर ऐसा न हुआ, तो फ्लैग मार्च की यह सख्ती सिर्फ एक तमाशा बनकर रह जाएगी, और नैनीताल की शांत फिजा में डर और शक का ज़हर और गहरा जाएगा। यही वक्त है जब पुलिस को यह साबित करना होगा कि वह सिर्फ सड़कों पर नहीं, बल्कि लोगों के दिलों में भी कानून का डर और भरोसा दोबारा जगा सकती है।

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