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मुख्यमंत्री की सुरक्षा में बड़ी लापरवाही से हड़कंप, ‘सहर प्रजातंत्र’ के खुलासे के बाद जांच के आदेश

मुख्यमंत्री की जान से जुड़ा मामला बना विभागीय लापरवाही की मिसाल, जांच की आड़ में दोषियों को बचाने की पुरानी रणनीति पर उठे तीखे सवाल।

रामनगर। देहरादून से लेकर नैनीताल तक शासन-प्रशासन में उस वक्त खलबली मच गई जब सहर प्रजातंत्र ने मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की सुरक्षा में हुई गंभीर चूक का पर्दाफाश किया। इस खुलासे के बाद न केवल वन विभाग के आला अफसरों में बेचौनी देखी गई, बल्कि मुख्यमंत्री कार्यालय में भी यह मामला गंभीरता से लिया गया। यह घटना तब सामने आई जब पता चला कि कॉर्बेट टाइगर रिजर्व में भ्रमण के दौरान मुख्यमंत्री जिस जिप्सी में सवार होकर सफारी पर निकले थे, वह वाहन वर्षों पुरानी और बिना वैध फिटनेस के थी। यही नहीं, वाहन का सेफ्टी ऑडिट भी नहीं हुआ था, जो किसी भी वीआईपी मूवमेंट के दौरान अनिवार्य होता है। यह लापरवाही न केवल प्रशासनिक विफलता को दर्शाती है बल्कि राज्य के शीर्ष पद पर बैठे व्यक्ति की सुरक्षा को खतरे में डालने जैसा है।

इस मामले की गंभीरता को देखते हुए प्रमुख वन संरक्षक (हॉफ) समीर सिन्हा ने जांच के आदेश जारी कर दिए हैं। इस जांच की जिम्मेदारी पीसीसीएफ वाइल्डलाइफ रंजन कुमार मिश्रा को दी गई है, जो इस पूरी घटना की तह तक जाकर रिपोर्ट प्रस्तुत करेंगे। यही नहीं, एक दिन पहले ही प्रमुख सचिव आरके सुधांशु ने भी पूरे घटनाक्रम पर संज्ञान लेते हुए स्थिति का जायज़ा लिया है। जाहिर है, यह मामला मुख्यमंत्री से सीधे तौर पर जुड़ा है, इसलिए इसे नजरअंदाज करना संभव नहीं। प्रशासन अब कोई भी कदम बिना सोच-समझ के नहीं उठाना चाहता। जिप्सी की स्थिति, उसके दस्तावेज, सफारी की योजना और उसमें शामिल सभी कार्मिकों की भूमिका अब जांच के दायरे में आ चुकी है। रिपोर्ट उच्च स्तर पर सौंपे जाने के बाद ही तय होगा कि किन लोगों की लापरवाही से यह गंभीर चूक हुई।

खबर सामने आने के साथ ही यह सवाल भी उठने लगे हैं कि जब वन मंत्री सुबोध उनियाल पहले ही स्वीकार कर चुके हैं कि जिप्सी की फिटनेस समय पर नहीं कराई गई थी, तब पीसीसीएफ वाइल्डलाइफ को अब और किस बात की जांच करनी है? क्या यह जांच महज़ एक औपचारिकता बनकर रह जाएगी, जैसा कि पहले राजाजी टाइगर रिजर्व के मामले में हुआ, जहां डेढ़ साल से अधिक वक्त बीत गया और कोई ठोस नतीजा सामने नहीं आया। यह सवाल इसलिए और भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि सीएम की सुरक्षा से जुड़े मामले को बार-बार नज़रअंदाज़ करना गंभीर प्रशासनिक विफलता का प्रमाण है। अगर विभाग खुद स्वीकार कर चुका है कि जिप्सी की वैधता खत्म हो चुकी थी, तो फिर जांच का दायरा सिर्फ दोषियों की पहचान तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि उन अधिकारियों तक भी पहुंचना चाहिए जिन्होंने इस लापरवाही को नजरअंदाज किया।

6 जुलाई 2025, रविवार को मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने नैनीताल जिले स्थित कॉर्बेट टाइगर रिजर्व का दौरा किया था। इस दौरान वह पार्क में एक जिप्सी में सवार होकर सफारी पर निकले, जिसमें उनके साथ कॉर्बेट पार्क के निदेशक साकेत बडोला भी मौजूद थे। सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि जिस वाहन में मुख्यमंत्री को जंगल भ्रमण कराया गया, उसकी फिटनेस वैधता 22 अगस्त 2020 को समाप्त हो चुकी थी। यानी यह वाहन पाँच साल से बिना वैध दस्तावेजों के पार्क में चल रही थी। न कोई तकनीकी परीक्षण, न कोई सुरक्षा जांच और न ही अद्यतन दस्तावेजकृफिर भी इस जिप्सी में मुख्यमंत्री को बैठाया गया। यह न केवल नियमों का घोर उल्लंघन था, बल्कि राज्य के सर्वाेच्च संवैधानिक पद की गरिमा के साथ भी खिलवाड़ था।

जब यह खबर सहर प्रजातंत्र द्वारा सार्वजनिक की गई, तो प्रशासन और वन विभाग की नींद उड़ गई। आनन-फानन में जिस जिप्सी की फिटनेस वर्षों पहले समाप्त हो चुकी थी, उसे तुरन्त 2027 तक वैधता प्रदान कर दी गई। यह तात्कालिक कार्रवाई अपने आप में यह दर्शाती है कि विभाग को अपनी गलती का एहसास तो था, लेकिन जब तक यह मुद्दा मीडिया में नहीं आया, तब तक किसी ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। इस पूरे मामले ने साफ कर दिया है कि उत्तराखंड जैसे संवेदनशील राज्य में भी वीआईपी की सुरक्षा व्यवस्था किस हद तक लापरवाही की शिकार हो सकती है। जिप्सी की फिटनेस हो या सेफ्टी ऑडिटकृदोनों बुनियादी प्रक्रियाएं थीं, जिन्हें नजरअंदाज किया गया और नतीजतन, पूरे प्रशासनिक ढांचे पर सवाल खड़े हो गए।

इस बीच मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने भी मामले को गंभीरता से लेते हुए ईटीवी भारत से बातचीत में कहा है कि घटना की जांच के आदेश दिए जा चुके हैं और दोषियों को किसी भी सूरत में बख्शा नहीं जाएगा। मुख्यमंत्री का यह बयान स्पष्ट करता है कि वह इस मामले में कोई कोताही नहीं बरतने वाले। हालांकि, यह भी देखा जाना होगा कि यह जांच केवल कागजों तक सीमित रहती है या वास्तव में लापरवाह अधिकारियों को जवाबदेह ठहराया जाता है। क्योंकि ऐसे मामले सिर्फ वाहनों की फिटनेस तक सीमित नहीं होते, बल्कि यह यह बताते हैं कि शासन व्यवस्था में कितनी ढिलाई है और कितना दायित्व बोध शेष है। कॉर्बेट जैसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध पार्क में यदि मुख्यमंत्री के साथ इस प्रकार की लापरवाही हो सकती है, तो आम लोगों की सुरक्षा और व्यवस्था की स्थिति का अंदाजा लगाना कठिन नहीं।

इस पूरे घटनाक्रम ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि उत्तराखंड जैसे राज्य में जब तक मीडिया अपनी भूमिका नहीं निभाता, तब तक कई महत्वपूर्ण मुद्दे दबा दिए जाते हैं। सहर प्रजातंत्र की पत्रकारिता ने यह दिखा दिया कि लोकतंत्र में सवाल पूछना और सत्ता से जवाब मांगना कितना जरूरी है। अब देखना यह होगा कि जांच में क्या सामने आता है और क्या वास्तव में इस लापरवाही के लिए जिम्मेदार अफसरों पर कड़ी कार्रवाई होती है या फिर यह मामला भी समय के साथ रफा-दफा कर दिया जाएगा।

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