हरिद्वार(सुरेन्द्र कुमार)। सनातन संस्कृति पर आयोजित दो दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का समापन जब हुआ, तो पूरे माहौल में एक गूंज थीकृक्या हमारी सामाजिक अव्यवस्थाओं के लिए पश्चिमी दर्शन जिम्मेदार है? केंद्रीय जनजातीय राज्य मंत्री दुर्गा दास उईके ने इस विषय पर जोरदार बयान देते हुए कहा कि पश्चिमी कूड़ा करकट को अपनाने की प्रवृत्ति ने भारतीय संस्कृति को बुरी तरह प्रभावित किया है। उन्होंने कहा कि अगर समाज में सुधार लाना है, तो हमें फिर से सनातन संस्कृति की ओर लौटना होगा।
इस भव्य संगोष्ठी का आयोजन देवभूमि विकास संस्थान और देव संस्कृति विश्वविद्यालय द्वारा किया गया। समापन सत्र में केंद्रीय मंत्री ने कहा कि सनातन संस्कृति हमें जीवन के असली उद्देश्य से परिचित कराती है, लेकिन पश्चिमी प्रभाव ने हमारे व्यक्तित्व में दोहरापन ला दिया है और हमें भोगवादी बना दिया है। उन्होंने गायत्री परिवार से अपने गहरे संबंधों का भी उल्लेख किया और इसके योगदान की विशेष रूप से सराहना की।
देव संस्कृति विश्वविद्यालय के प्रति कुलपति डॉ. चिन्मय पंड्या ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि भारत केवल एक भूगोलिक क्षेत्र नहीं, बल्कि एक समृद्ध संस्कृति और सभ्यता का प्रतीक है। उन्होंने जोर देकर कहा कि भारत की पहचान केवल राजनीतिक सीमाओं से नहीं, बल्कि इसकी आध्यात्मिक और नैतिक विरासत से होती है। दुनिया के कई देशों में आज भी सनातन संस्कृति के गहरे चिन्ह मौजूद हैं, जो इसकी सार्वभौमिकता को प्रमाणित करते हैं। उन्होंने कहा कि भारत का इतिहास करुणा, परोपकार और मानवता की मिसाल रहा है, जबकि अन्य देशों का इतिहास मुख्य रूप से संघर्ष, युद्ध और बर्बरता से भरा रहा है। भारतीय संस्कृति ने हमेशा विश्व को शांति, अहिंसा और सह-अस्तित्व का संदेश दिया है। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि यदि दुनिया को सही दिशा में ले जाना है, तो उसे सनातन मूल्यों को अपनाना ही होगा।

संगोष्ठी में अखिल भारतीय स्वयंसेवक संघ के पर्यावरण कार्यक्रम के संयोजक गोपाल आर्य और हरिद्वार के सांसद त्रिवेंद्र सिंह रावत ने भी अपने विचार साझा किए। गोपाल आर्य ने इस दिन को केवल धार्मिक दृष्टि से देखने के बजाय इसे एक नई वैचारिक शुरुआत के रूप में परिभाषित किया। उन्होंने कहा कि यह दिन सिर्फ नववर्ष और नवरात्रि के शुभारंभ तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आत्ममंथन और चिंतन की एक महत्वपूर्ण घड़ी भी है। उन्होंने जोर देते हुए कहा कि जब समाज गहराई से ऐसे गंभीर मुद्दों पर विचार-विमर्श करता है, तब न केवल समस्याओं की पहचान होती है, बल्कि समाधान की नई दिशाएं भी खुलती हैं। उन्होंने कहा कि यह समय सिर्फ परंपराओं का पालन करने का नहीं, बल्कि उन्हें समझने और वर्तमान जीवन में सही रूप में अपनाने का भी है। इस तरह के आयोजनों से समाज को अपनी जड़ों से जुड़ने और भविष्य के लिए सही मार्गदर्शन प्राप्त करने का अवसर मिलता है, जिससे एक सकारात्मक और समृद्ध राष्ट्र की नींव रखी जा सकती है।
उन्होंने मौजूदा आर्थिक विकास का जिक्र करते हुए कहा कि आज हम आर्थिक रूप से विश्व में तीसरे स्थान पर हैं, लेकिन हमें अपने पर्यावरणीय दृष्टिकोण को बदलने की जरूरत है। जो प्रकृति हमें सुरक्षा देती है, क्या हम उसकी सुरक्षा कर पा रहे हैं? उन्होंने जल संरक्षण के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि पानी को केवल ‘वाटर’ न समझकर ‘जीवन’ के रूप में अपनाना होगा। उन्होंने लोगों से आत्मविश्लेषण करने का आह्वान किया कि क्या उनकी जीवनशैली पर्यावरण के अनुकूल है या नहीं। उन्होंने आगे कहा कि हमें प्रकृति को परमात्मा के रूप में स्वीकार करना होगा और पृथ्वी को एक जीवंत इकाई के रूप में देखना होगा। जब तक हम अपने आचरण में बदलाव नहीं लाते, तब तक पर्यावरण संरक्षण केवल एक चर्चा का विषय बना रहेगा।ष्
हरिद्वार से सांसद त्रिवेंद्र सिंह रावत ने अपने संबोधन में कहा कि वर्तमान समय में पूरा विश्व सनातन संस्कृति की ओर आशा भरी नजरों से देख रहा है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि भारतीय संस्कृति की समृद्ध परंपराओं और मूल्यों को अपनाकर ही समाज को सही दिशा दी जा सकती है। लेकिन इसके लिए हर भारतीय को आत्मविश्वास से भरपूर होना होगा, ताकि हम केवल सांस्कृतिक धरोहर के रक्षक ही नहीं, बल्कि विश्व का नेतृत्व करने वाले बन सकें। उन्होंने कहा कि सनातन संस्कृति की महानता को बनाए रखने के लिए हमें अपनी जड़ों से जुड़े रहना होगा। उन्होंने देवभूमि विकास संस्थान द्वारा किए जा रहे सामाजिक कार्यों की सराहना की, विशेष रूप से जल संरक्षण, वृक्षारोपण, रक्तदान, अंगदान और देहदान जैसे अभियानों का उल्लेख किया, जिनके माध्यम से समाज में जागरूकता बढ़ाने का महत्वपूर्ण कार्य किया जा रहा है।

कार्यक्रम के समापन पर सभी वक्ताओं ने एक स्वर में यह स्पष्ट संदेश दिया कि पर्यावरण संरक्षण केवल सरकारी योजनाओं के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। जब तक आम नागरिक स्वयं अपनी जीवनशैली और सोच में बदलाव नहीं लाते, तब तक प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व की भावना विकसित करना संभव नहीं होगा। वक्ताओं ने इस बात पर जोर दिया कि पर्यावरण संरक्षण को एक आदत और संस्कार के रूप में अपनाना होगा, न कि केवल चर्चा का विषय बनाना चाहिए। वृक्षारोपण, जल संरक्षण और स्वच्छता जैसे प्रयास केवल सरकारी पहल से नहीं, बल्कि जनता की भागीदारी से ही सफल हो सकते हैं। उन्होंने कहा कि टिकाऊ विकास की असली कुंजी प्रकृति के साथ संतुलन बनाए रखने में ही है। जब समाज प्रकृति को सम्मान देगा, तभी वास्तविक पर्यावरणीय स्थिरता संभव हो सकेगी और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक सुरक्षित भविष्य सुनिश्चित किया जा सकेगा।