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चारधाम की ओर बढ़ती भीड़ में धधकते पहाड़ और बुझती आस्था की पुकार

प्राकृतिक सौंदर्य और आध्यात्मिकता खतरे में, इलेक्ट्रिक वाहनों के बिना चारधाम यात्रा बनेगी पर्यावरणीय आपदा का सबब बनती श्रद्धा की मौत।

रामनगर(सुनील कोठारी)। चारधाम यात्रा को लेकर जिस तरह की भीड़ उत्तराखंड की पर्वतीय वादियों में उमड़ रही है, उसने एक गंभीर सवाल खड़ा कर दिया है कृ क्या आस्था के नाम पर प्रकृति की हत्या उचित है? जिस देवभूमि को कभी हिमालय की शीतल छांव, स्वच्छ हवा और आध्यात्मिक शांति के लिए जाना जाता था, वह आज धुएं से भरे इंजन, शोर से गूंजते पहाड़ और जलते तापमान की पहचान बनती जा रही है। श्रद्धा की राह में जब तपस्या की जगह आराम, संयम की जगह सुविधा और शांति की जगह ध्वनि प्रदूषण आ जाए, तो यह स्पष्ट संकेत है कि हम उस पवित्र यात्रा को केवल पर्यटन में बदल रहे हैं। डीजल और पेट्रोल से लबरेज गाड़ियों की बेतहाशा आवाजाही ने उत्तराखंड की वादियों को तपते मैदानों जैसा बना दिया है, जहां तापमान लगातार 40 डिग्री को छू रहा है कृ और यह केवल मौसम का नहीं, हमारी सोच का परिणाम है।

पहले जहां तीर्थयात्री कठिन पर्वतीय मार्गों पर पैदल चलकर भक्ति और संयम का अनुभव करते थे, आज वे एसी वाहनों की ठंडी हवा में बैठकर, ऊंचे पहाड़ों तक बिना एक पग चले पहुंचने को ही पुण्य मानने लगे हैं। इन अत्याधुनिक गाड़ियों से निकलती गर्मी और धुआं, जो कभी बर्फीली हवाओं के लिए प्रसिद्ध थे, उन पर्वतों को अब ज्वालामुखी जैसे तपा रहे हैं। जो वादियां कभी आत्मा को शांत करती थीं, अब वहां सिर्फ इंजन की आवाजें, ट्रैफिक जाम और सांसों में भरता धुआं रह गया है। क्या यह वही चारधाम यात्रा है, जिसे आत्मशुद्धि और तप का प्रतीक माना गया था? जब पहाड़ ही गरम हो जाएं, जब हवा में ठंडक की बजाय गर्मी हो, तब क्या कोई मंदिर तक की यात्रा मन को शांति दे सकती है?

यह सच है कि श्रद्धा अडिग है, लेकिन सरकार की निष्क्रियता और यात्रियों की सुविधा-प्रियता ने मिलकर एक गंभीर पर्यावरणीय संकट को जन्म दे दिया है। ना सरकार कोई ठोस नीति बना रही है, ना श्रद्धालु इस तीर्थ यात्रा के उद्देश्य को समझने को तैयार हैं। निजी वाहनों की अंधाधुंध अनुमति, हर गाड़ी के साथ बढ़ता प्रदूषण, और सरकार की खामोशी कृ यह त्रिकोण मिलकर देवभूमि को नष्ट करने की राह पर है। क्यों नहीं राज्य सरकार बॉर्डर पर गाड़ियों को रोककर केवल इलेक्ट्रिक शटल सेवा को अनुमति देती? क्यों नहीं चारधाम के मार्गों को डीजल और पेट्रोल वाहनों के लिए प्रतिबंधित कर दिया जाता? आज आवश्यकता केवल आस्था की नहीं, संवेदनशीलता की भी है। श्रद्धा अगर प्रकृति को चोट पहुंचाने लगे तो वह पुण्य नहीं, पाप का रूप ले लेती है।

हर बीतते दिन के साथ तापमान का बढ़ना, पेड़ों की छांव का कम होना और हवा में घुलता जहर, इन सबका एक ही कारण है कृ बेकाबू यातायात और पर्यावरण के प्रति हमारी उपेक्षा। जब उत्तराखंड जैसे शांत प्रदेश के पहाड़ भी चिल्लाकर कहने लगें कि अब और नहीं सहा जाता, तब क्या यह सरकार और जनता दोनों के लिए चेतावनी नहीं होनी चाहिए? अगर समय रहते कोई निर्णायक कदम नहीं उठाया गया, तो वह दिन दूर नहीं जब इन मंदिरों तक केवल धुआं पहुंचेगा, श्रद्धा नहीं। तीर्थ अगर प्रदूषण से ढक जाए, तो वहां ना आत्मिक संतोष मिलेगा और ना ही ईश्वर की अनुभूति। इसलिए अब आस्था के साथ-साथ उत्तरदायित्व की भावना भी जरूरी है। वरना यह पावन भूमि धीरे-धीरे जलते अंगारों में तब्दील हो जाएगी।

अब वक्त आ गया है कि सरकार केवल घोषणाएं नहीं, बल्कि कठोर नीतियों को लागू करे। चारधाम यात्रा को पूरी तरह से इलेक्ट्रिक वाहनों के माध्यम से संचालित करने की व्यवस्था तत्काल शुरू होनी चाहिए। बॉर्डर पर निजी गाड़ियों की एंट्री बंद कर दी जाए, और वहीं से अत्याधुनिक, शून्य-प्रदूषण वाली शटल सेवाएं चलाकर तीर्थ यात्रियों को मंदिरों तक पहुंचाया जाए। यात्रियों को यह भी बताया जाए कि यह यात्रा केवल शरीर की नहीं, आत्मा की होती है कृ और आत्मा की शुद्धि एसी और म्यूजिक सिस्टम में नहीं, आत्मसंयम और प्रकृति से जुड़ाव में होती है। तीर्थ वही है जो आपको भीतर से बदल दे कृ और यह बदलाव तभी संभव है जब हम बाहरी आराम छोड़, भीतरी चेतना से जुड़ें।

चारधाम यात्रा को लेकर जो रवैया आज अपनाया जा रहा है, वह एक पवित्र परंपरा को बाजारू रंग में रंगने जैसा है। पर्यटन की तरह इसे चलाने का मतलब है कि हम इस यात्रा के आध्यात्मिक स्वरूप को खत्म कर रहे हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह केवल सड़क और गाड़ियों की यात्रा नहीं, यह आत्मा के ताप को शांत करने की प्रक्रिया है। अगर सरकार और जनता दोनों ने मिलकर इसकी गंभीरता नहीं समझी, तो आने वाले समय में न तो यह यात्रा बचेगी, और न वह देवभूमि, जो आज भी करोड़ों श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र है। अब समय है सजग होने का, सख्ती बरतने का और तीर्थ को बचाने का कृ क्योंकि जब देवभूमि ही नहीं बचेगी, तो तीर्थ भी केवल एक भ्रम बनकर रह जाएगा।

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