रामनगर। कॉर्बेट टाइगर रिजर्व के पाखरो क्षेत्र में अवैध निर्माण और बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटान का मामला अब महज एक प्रशासनिक जांच का विषय नहीं रह गया, बल्कि यह उत्तराखंड की कानूनी और राजनीतिक व्यवस्था के लिए भी एक कठिन अग्निपरीक्षा बन चुका है। प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के बाद अब केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) भी इस बहुचर्चित प्रकरण में आरोप पत्र दाखिल करने की तैयारी में है। सीबीआई द्वारा चार्जशीट दायर किए जाने में केवल एक ही बाधा शेष है—राज्य सरकार से अभियोजन की अनुमति। एजेंसी ने इस अनुमति के लिए अप्रैल माह में आवेदन किया था और अब कानून के प्रावधानों के अनुसार अगस्त के अंत तक सरकार को कोई निर्णय लेना होगा, अन्यथा यह अनुमति स्वतः मान्य मानी जाएगी। यह स्थिति पूरे मामले को एक नई कानूनी गति देने वाली है।
इस घोटाले की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अब तक राज्य ही नहीं, केंद्र सरकार की प्रमुख जांच एजेंसियां इसमें गहन छानबीन कर चुकी हैं। विजिलेंस से लेकर उत्तराखंड के वन विभाग के आंतरिक अधिकारियों की रिपोर्ट और फिर भारत सरकार के वन महानिदेशक की अध्यक्षता में बनी उच्चस्तरीय समिति की जांच इस मामले की जटिलता और गहराई को दर्शाती है। अब जब प्रवर्तन निदेशालय ने इस मामले में मनी लॉन्ड्रिंग का एंगल सामने लाते हुए अदालत में चार्जशीट दाखिल कर दी है, तो यह स्पष्ट हो चुका है कि पाखरो क्षेत्र में केवल नियमों का उल्लंघन नहीं हुआ, बल्कि सरकारी पदों और अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए आर्थिक अपराध भी किए गए हैं। इससे जुड़ी संपत्तियों को जब्त करने की कार्रवाई भी इसी ओर संकेत करती है।
ईडी द्वारा दाखिल आरोप पत्र में जिन अधिकारियों को आरोपी बनाया गया है, उनमें सेवानिवृत्त डीएफओ किशन चंद, पूर्व डीएफओ अखिलेश तिवारी, तथा पूर्व रेंजर बृज बिहारी शर्मा और मथुरा सिंह के नाम प्रमुख रूप से शामिल हैं। ईडी ने इनके खिलाफ प्रिवेंशन ऑफ मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट (पीएमएलए) की विशेष अदालत में मुकदमा दायर करते हुए 1.75 करोड़ रुपये की संपत्तियां भी अटैच की हैं, जिनका संबंध किशन चंद और बृज बिहारी शर्मा से बताया गया है। यह पहली बार है जब वन विभाग के अधिकारियों के खिलाफ आर्थिक अनियमितताओं को लेकर इस स्तर की कानूनी कार्रवाई हो रही है। इससे साफ है कि अब यह मामला प्रशासनिक लापरवाही से कहीं आगे निकलकर आर्थिक अपराध की श्रेणी में प्रवेश कर चुका है।
हालांकि अब तक सीबीआई की ओर से चार्जशीट दाखिल नहीं की जा सकी है, लेकिन यह केवल तकनीकी प्रक्रिया में फंसी हुई बात है। अप्रैल में जब सीबीआई ने सरकार से अभियोजन की अनुमति मांगी थी, तब से लेकर अब तक इस पर कोई निर्णय नहीं लिया गया है। नियमों के अनुसार सरकार को 120 दिनों के भीतर निर्णय देना होता है और यदि इस अवधि में कोई कार्रवाई नहीं होती, तो अनुमति स्वतः मान ली जाती है। इस कानूनी स्थिति में अब सीबीआई के पास अगस्त के अंत तक का समय है। इसके बाद, यदि अनुमति न दी गई तो भी सीबीआई अपने स्तर से आगे की कार्रवाई करने को स्वतंत्र होगी। यही कारण है कि पूरे मामले पर शासन और प्रशासन की नजरें टिकी हैं। इस विषय में वन मंत्री सुबोध उनियाल से बातचीत की तो उन्होंने स्पष्ट किया कि सरकार नियमों के अनुरूप काम कर रही है और बहुत जल्द इस पर निर्णय लिया जाएगा।
इस मामले की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि यह एक ऐसा मामला बन चुका है, जिसमें राज्य और केंद्र की सर्वोच्च जांच एजेंसियों ने अपनी-अपनी तहकीकात पूरी कर ली है। विजिलेंस, वन विभाग, पुलिस, केंद्रीय वन मंत्रालय, ईडी और सीबीआई जैसी संस्थाओं की जांचों ने इस बात की पुष्टि की है कि पाखरो क्षेत्र में जो निर्माण कार्य हुए और जो वृक्षों की कटाई की गई, वह न केवल नियमों के खिलाफ थी, बल्कि उसे छिपाने और बचाने के लिए भी पदों का दुरुपयोग किया गया। यह अब एक ऐसा केस बन गया है जो उत्तराखंड में पर्यावरण, वन संरक्षण और प्रशासनिक पारदर्शिता पर गंभीर सवाल खड़े करता है। सीबीआई को अभियोजन की अनुमति मिलते ही ईडी की तरह वह भी आरोप पत्र दाखिल करेगी और तब यह मामला अदालत के समक्ष एक निर्णायक मोड़ पर पहुंचेगा।