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उत्तराखंड हाईकोर्ट ने पूछा क्या जनजाति प्रमाणपत्र केवल क्षेत्रीय निवास पर मिल रहे हैं

संविधान की धारा 342 की कसौटी पर हाईकोर्ट ने उठाए गंभीर सवाल, मांगा सरकार से जवाब प्रमाणपत्र की वैधता के असली आधार पर

नैनीताल। राज्य की न्यायिक गलियारों में उस समय हलचल मच गई जब उत्तराखंड हाईकोर्ट ने अनुसूचित जनजातियों से जुड़े एक बेहद संवेदनशील और ज्वलंत मसले पर राज्य सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया। माननीय न्यायमूर्ति राकेश थपलियाल की एकल पीठ ने बीते सप्ताह सरकार से यह स्पष्ट करने को कहा कि क्या वास्तव में अनुसूचित जनजाति प्रमाणपत्र केवल उन लोगों को दिए जा रहे हैं जो विशेष रूप से अधिसूचित जनजातीय समुदायों से आते हैं, या फिर यह प्रमाणपत्र उस भौगोलिक क्षेत्र के निवास के आधार पर भी जारी किए जा रहे हैं जिसे आदिवासी क्षेत्र घोषित किया गया है। अदालत ने इस पूरी प्रक्रिया को लेकर गहरी चिंता जताई है और साफ शब्दों में यह जानने की मांग रखी है कि राज्य सरकार किन तथ्यों के आधार पर इस संवेदनशील प्रमाणपत्र को प्रदान कर रही है। साथ ही पीठ ने इस बात की जानकारी भी तलब की है कि अब तक कितने व्यक्तियों को महज उनके आवास की स्थिति के आधार पर यह प्रमाणपत्र जारी किए गए हैं, जो इस पूरे मामले को और भी अधिक पेचीदा बना देता है।

इस संवेदनशील याचिका पर सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने उस व्यवस्था की तह में जाकर प्रश्न खड़ा किया है, जहां याचिकाकर्ताओं द्वारा यह आरोप लगाया गया है कि उन्हें केवल इस आधार पर अनुसूचित जनजाति का प्रमाणपत्र मिला कि वे जौनसार क्षेत्र में रहते हैं। जौनसार क्षेत्र एक ऐसा क्षेत्र है जिसे ऐतिहासिक रूप से जनजातीय क्षेत्र घोषित किया गया है और जहां पर अधिसूचित जनजातीय समुदायों की घनी आबादी है। याचिकाकर्ताओं का यह दावा है कि यदि वे उस क्षेत्र में निवास करते हैं, तो वे स्वयं भी उस जनजातीय समुदाय की तरह माने जाएं और उन्हें भी अनुसूचित जनजाति प्रमाणपत्र दिए जाएं। इस दलील को लेकर अदालत ने तीखी आपत्ति जताते हुए इस सोच को पूरी तरह संविधान के अनुच्छेद 342 के विरोधाभासी करार दिया और कहा कि केवल किसी क्षेत्र विशेष में निवास करने से कोई व्यक्ति उस समुदाय का सदस्य नहीं हो जाता जिसे अनुसूचित जनजाति घोषित किया गया है।

इस याचिका में वकील ने यह तर्क पेश किया कि उत्तराखंड बनने से पहले उत्तर प्रदेश शासन के अंतर्गत और वर्तमान में भी राज्य प्रशासन द्वारा ऐसे क्षेत्रों में रहने वालों को अनुसूचित जनजाति प्रमाणपत्र जारी किए जा रहे हैं, चाहे वे उस समुदाय से संबंधित हों या नहीं। अदालत ने इसे एक ‘गंभीर विषय’ बताते हुए राज्य सरकार से यह स्पष्ट करने को कहा कि क्या प्रशासन अनुसूचित जनजाति प्रमाणपत्र जारी करने में केवल निवास को ही आधार बना रहा है, या प्रमाणपत्र केवल उन व्यक्तियों को दिए जा रहे हैं जो संविधान में अधिसूचित समुदायों से संबंधित हैं। इस पूरी व्यवस्था पर सवाल उठाते हुए न्यायालय ने कहा कि इस तरह की प्रक्रिया संविधान के प्रावधानों के साथ सीधा खिलवाड़ है, और इससे वास्तविक जनजातीय लोगों के अधिकारों का क्षरण होता है।

भारत के संविधान के अनुच्छेद 342 में यह स्पष्ट रूप से वर्णित है कि किसी भी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश में किस समुदाय को अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता दी जाएगी, इसका निर्णय केवल राष्ट्रपति द्वारा राज्यपाल से परामर्श कर ही लिया जा सकता है। इसी अनुच्छेद के अंतर्गत वर्ष 1967 में तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार की सिफारिश पर केंद्र सरकार द्वारा एक अधिसूचना जारी की गई थी, जिसमें पांच जनजातीय समुदायों कृ भोटिया, बुक्सा, जौनसारी, राजी और थारो कृ को उत्तर प्रदेश के लिए अनुसूचित जनजाति घोषित किया गया था। अदालत ने इस आदेश को उद्धृत करते हुए दोहराया कि अधिसूचना किसी क्षेत्र को अनुसूचित जनजाति घोषित नहीं करती, बल्कि केवल विशिष्ट समुदायों को ही यह दर्जा देती है। ऐसे में जो व्यक्ति केवल उन क्षेत्रों में रहते हैं, उन्हें अनुसूचित जनजाति प्रमाणपत्र देना न केवल असंवैधानिक है बल्कि वास्तविक लाभार्थियों के हकों पर कुठाराघात है।

याचिकाकर्ताओं की तरफ से जो तर्क रखा गया, वह यह था कि यदि कोई व्यक्ति जौनसार क्षेत्र के भीतर निवास करता है, तो वह इस क्षेत्रीय आधार पर अनुसूचित जनजाति प्रमाणपत्र का पात्र बन सकता है। इस पर न्यायमूर्ति राकेश थपलियाल ने दो टूक शब्दों में असहमति जताते हुए यह कहा कि यह सोच संविधान की भावना के एकदम विपरीत है। उन्होंने स्पष्ट किया कि प्रमाणपत्र केवल उन्हीं लोगों को दिया जाना चाहिए जो पांच अधिसूचित जनजातीय समुदायों कृ भोटिया, बुक्सा, जौनसारी, राजी और थारो कृ में से किसी एक से संबंधित हों, न कि केवल इस आधार पर कि वे किसी जनजातीय क्षेत्र में रहते हैं। यह निष्कर्ष उच्च न्यायालय के रुख को साफ दर्शाता है कि वह इस संवेदनशील मुद्दे पर किसी भी तरह की ढील देने के पक्ष में नहीं है।

अंत में अदालत ने कहा कि यदि कोई व्यक्ति अनुसूचित जनजाति का प्रमाणपत्र पाने का दावा करता है, तो केवल उसके निवास को आधार बनाकर प्रमाणपत्र देना गलत होगा जब तक वह व्यक्ति स्वयं उन अधिसूचित जनजातीय समुदायों में से किसी का हिस्सा न हो। यह मामला जितना संवेदनशील है, उतना ही जटिल भी है और इसकी सुनवाई अब 16 मई को की जाएगी, जिसमें राज्य सरकार को अपने रुख को और अधिक स्पष्टता से न्यायालय के सामने रखना होगा। इस मामले के निष्कर्ष दूरगामी प्रभाव डाल सकते हैं क्योंकि यह सिर्फ उत्तराखंड की बात नहीं है, बल्कि पूरे देश में अनुसूचित जनजाति के अधिकारों, उनके प्रमाणन और पहचान से जुड़ी संवैधानिक व्यवस्था की आत्मा को लेकर है।

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