काशीपुर। अल्का पाल ने पहलगाँव नरसंहार पर ‘सहर प्रजातंत्र’ से एक विशेष साक्षात्कार में कहा, “जो पहलगाँव में हुआ, वह केवल एक नरसंहार नहीं था, बल्कि यह हमारे देश की राष्ट्रीय अस्मिता, लोकतांत्रिक चेतना और हमारे संविधान पर एक गहरा और करारा तमाचा था। यह तमाचा उन्हीं हाथों से पड़ा है, जो खुद को राष्ट्रवादी कहते हैं, जो हर मंच पर ‘राष्ट्रवाद’ का राग अलापते हैं, लेकिन जब क़ुर्बानी देने की घड़ी आती है, तो उनके सुर खोखले और उनके इरादे नंगे नज़र आते हैं।” अल्का पाल ने इस हमले को केवल एक आतंकवादी घटना नहीं माना, बल्कि इसे सिस्टम की गहरी विफलता और सरकार के भ्रष्टाचार का परिणाम बताया। उन्होंने केंद्र सरकार की खुफिया विफलता पर कड़ी आलोचना की और कहा, “जब खुफिया जानकारी थी, फिर भी सुरक्षा की तैयारी पूरी तरह से नाकाम रही, तो यह केवल प्रशासनिक चूक नहीं, बल्कि सरकार की पूरी सुरक्षा नीति का बिखराव है।” इसके बाद उन्होंने प्रधानमंत्री की चुप्पी की आलोचना करते हुए कहा, “जब ऐसे भयावह हमले होते हैं, तो प्रधानमंत्री का मौन क़तई अस्वीकार्य है। उनकी चुप्पी उनके देश के प्रति वास्तविक जिम्मेदारी को झलकाती है।” उन्होंने भा.ज.पा. की राजनीति पर भी सवाल उठाया, कहकर कि “भा.ज.पा. चुनावी रैलियों में कश्मीर पर सख्ती का दावा करती है, लेकिन जमीनी हकीकत बिल्कुल अलग है।” अल्का पाल ने कांग्रेस की आने वाली रणनीति को लेकर भी स्पष्ट संकेत दिया कि पार्टी इस मुद्दे पर सिर्फ बयानबाज़ी नहीं, बल्कि कड़ा संघर्ष करेगी।

प्रशनः क्या आपको लगता है कि पहलगाँव नरसंहार में सरकार की खुफिया एजेंसियों की नाकामी जिम्मेदार है? क्या यह प्रशासनिक चूक नहीं है?
उत्तरः बिलकुल, पहलगाँव नरसंहार महज़ एक आतंकी हमला नहीं, बल्कि देश की खुफिया मशीनरी और प्रशासनिक ढांचे की खौफनाक नाकामी का जीता-जागता प्रमाण है। जब एक संवेदनशील क्षेत्र में, जहाँ हर कदम पर सुरक्षाबलों की मौजूदगी होती है, वहाँ आतंकवादी न केवल घुसपैठ करते हैं बल्कि निर्दाेषों का नरसंहार करके फरार हो जाते हैंकृतो यह सीधा-सीधा इंटेलिजेंस फेल्योर नहीं तो और क्या है? सरकार की खुफिया एजेंसियाँ क्या केवल विपक्षी नेताओं की जासूसी के लिए हैं? आम नागरिकों की सुरक्षा क्या उनके एजेंडे में नहीं है? यह प्रशासनिक चूक नहीं, बल्कि प्रशासनिक अपराध है, जिसके लिए सिर्फ निचले स्तर के अधिकारियों को नहीं, बल्कि दिल्ली में बैठी हुकूमत को जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए। यह हमला बताता है कि सरकार की आतंरिक सुरक्षा नीति सिर्फ भाषणों में ही मज़बूत है, जमीनी हकीकत में तो देश की रगों से खून बह रहा है। अब वक्त आ गया है कि जवाबदेही सिर्फ सवालों तक नहीं, इस्तीफ़ों तक पहुँचे।
- प्रशनः आपके अनुसार केंद्र सरकार की कश्मीर नीति क्या विफल हो चुकी है, जब लगातार निर्दाेष लोगों पर हमले हो रहे हैं?
उत्तरः अगर किसी सरकार की नीति के बावजूद बार-बार निर्दोषों की लाशें गिर रही हों, तो उस नीति को विफल नहीं, बल्कि जनविरोधी और असंवेदनशील करार देना चाहिए। केंद्र सरकार की कश्मीर नीति अब सिर्फ भाषणों, टीवी डिबेट्स और चुनावी स्टंट तक सिमट चुकी है। धरातल पर हालात इतने भयावह हैं कि आम नागरिक हर दिन मौत के साए में जी रहा है। जब हर सप्ताह किसी न किसी हिस्से से टारगेटेड किलिंग की ख़बर आती है, जब सैलानी भी गोलियों के शिकार हो जाते हैं, तो सवाल उठता है—कहाँ है वो ‘नया कश्मीर’ जिसका दावा मोदी सरकार करती है? अल्का पाल ने तीखा हमला बोलते हुए कहा, “यह नीति नहीं, यह निर्मम प्रयोग है, जिसमें कश्मीर को एक राजनीतिक प्रयोगशाला बना दिया गया है और वहाँ की जनता को मोहरे।” उन्होंने कहा, “वक़्त आ गया है कि केंद्र सरकार अपने झूठे दावों की चादर उतारे और सच्चाई की सर्द हवाओं का सामना करे।” - प्रशनः कांग्रेस इस घटना को लेकर क्या ठोस कदम उठाएगी या यह भी सिर्फ बयानबाजी तक सीमित रहेगा?
उत्तरःअल्का पाल ने इस सवाल पर ग़ज़ब का तीखा और ज़मीन से जुड़ा जवाब दिया—“कांग्रेस सिर्फ मोमबत्ती जलाने वाली पार्टी नहीं है, हम आग लगाने का माद्दा रखते हैं—जनता के दिलों में, सत्ता के घमंड में और चुप्पी के षड्यंत्र में।” उन्होंने कहा कि यह घटना कांग्रेस के लिए एक चेतावनी नहीं, बल्कि जनआंदोलन का शंखनाद है। कांग्रेस इस मुद्दे को संसद के गलियारों से लेकर हर गली, हर गाँव तक लेकर जाएगी। पीड़ितों को सिर्फ सहानुभूति नहीं, सम्मान और संबल दोनों दिलवाएगी। अल्का पाल ने घोषणा की कि कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज की अध्यक्षता में स्वतंत्र न्यायिक जांच की माँग करेगी, पीड़ितों के लिए स्थायी पुनर्वास और सरकारी नौकरी की गारंटी की माँग करेगी और इस पूरे मामले की जवाबदेही प्रधानमंत्री कार्यालय तक तय करेगी। “हम खून से सने इस सवाल को सत्ता के दरवाज़े पर पटकेंगे, और जब तक इंसाफ़ की घंटी नहीं बजेगी, हम चैन से नहीं बैठेंगे,” उन्होंने आग उगलते हुए कहा। - प्रशनः क्या यह सच नहीं है कि भाजपा की सरकार सिर्फ चुनावी रैलियों में कश्मीर पर सख्ती की बात करती है लेकिन जमीनी सुरक्षा व्यवस्था फेल है?
उत्तरः अल्का पाल ने इस सवाल पर ऐसा प्रहार किया कि शब्द नहीं, तलवारें चलती नज़र आईं। उन्होंने कहा, “भाजपा की कश्मीर नीति एक चुनावी इवेंट है, जिसमें मंच पर ‘सख्ती’ के नारे होते हैं और ज़मीन पर लाशों की कतार।” उन्होंने गुस्से में कहा कि भाजपा के नेता जब मंच से ‘370 हट गया’ कहकर तालियाँ बजवाते हैं, तो उसी वक़्त किसी कश्मीरी परिवार का बेटा गोली से छलनी हो रहा होता है। “ये कैसी सख्ती है जिसमें आतंकवादी खुला खेल खेलते हैं और सरकार की सुरक्षा व्यवस्था गूंगी-बहरी बनकर देखती रह जाती है?” अल्का पाल ने जोर देकर कहा कि भाजपा की कथित सख्ती सिर्फ कैमरों के लिए है, हकीकत में उनकी व्यवस्था रेत की दीवार साबित हो रही है। उन्होंने कहा, “सत्ता की ठसक में डूबी सरकार ये भूल गई है कि देश की सुरक्षा सिर्फ भाषणों से नहीं होती, बल्कि ज़मीन पर तैनात हौसले और ज़िम्मेदारी से होती है—जो आज पूरी तरह से लापता है।” - प्रशनः क्या आप इस नरसंहार को लेकर प्रधानमंत्री से इस्तीफे की मांग करेंगी या न्यायिक जांच की?
उत्तरः अल्का पाल ने इस सवाल पर जब जवाब दिया, तो वो शब्द नहीं बोले—वो एक लपट थी, जो दिल्ली के सिंहासन तक महसूस की जा सकती थी। उन्होंने दो टूक कहा, “मैं दोनों की मांग करती हूँ—प्रधानमंत्री का इस्तीफा और उच्चतम न्यायालय की निगरानी में न्यायिक जांच।” उन्होंने आगे गरजते हुए कहा, “जब देश के निर्दोष नागरिक खुलेआम मौत के घाट उतारे जा रहे हों और प्रधानमंत्री केवल मौन साधे बैठा हो, तो क्या वह अपने पद पर बने रहने लायक है?” अल्का पाल ने तंज कसते हुए कहा कि “जो नेता हर छोटी बात पर ट्वीट करते हैं, वे आज इस नरसंहार पर चुप क्यों हैं? क्या सिर्फ प्रचार में दिखने के लिए प्रधानमंत्री बना है कोई?” उन्होंने दोहराया कि न्यायिक जांच के साथ-साथ एक नैतिक परंपरा की बहाली ज़रूरी है, और इसके लिए प्रधानमंत्री को अपने पद से हटकर इस देश के साथ खड़ा होना होगा—not as a ruler, but as a responsible citizen. यही सच्चा नेतृत्व है। - प्रशनः क्या जाति जनगणना पहलगाम और राष्ट्रीय सुरक्षा से ध्यान भटकाने का ज़रिया है?
उत्तरः अल्का पाल ने इस पर साफ़ कहा, “जनगणना की माँग हमारी रही है, लेकिन समय की चाल अगर इसे एक ‘डायवर्जन’ टूल की तरह इस्तेमाल कर रही है, तो सवाल उठेंगे और उठने ही चाहिए।” उन्होंने कहा कि कांग्रेस जातीय जनगणना की सबसे पुरानी पैरोकार रही है, लेकिन जब देश की सीमाएं लहूलुहान हैं, आतंकी बेलगाम हैं और सरकार पूरी तरह विफल है—तो ऐसे में जनता को जातीय गणना में उलझाना एक सोची-समझी सियासी चाल भी हो सकती है। अल्का पाल ने तीखा कटाक्ष करते हुए कहा, “जब-जब सरकार सुरक्षा के मोर्चे पर फेल होती है, वो एक नया शोर खड़ा कर देती है—कभी राम मंदिर, कभी 370, कभी जातीय गणना। लेकिन इस बार जनता का ज़ख्म इतना ताज़ा है कि कोई शोर उसे बहला नहीं सकता।” उन्होंने कहा कि कांग्रेस जातीय गणना की वैधता को चुनौती नहीं देती, लेकिन उसका उपयोग जनता की पीड़ा से मुँह मोड़ने के लिए नहीं होने दिया जाएगा। पहलगाँव का खून और वहाँ के शहीदों की चिताएं अभी बुझी नहीं हैं—और अगर कोई यह सोच रहा है कि आंकड़ों की बहस में आग की तपिश कम हो जाएगी, तो वह सत्ता की सबसे बड़ी गलतफहमी पाल रहा है।