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पत्रकारिता की मर्यादा बचाओ वरना सस्ती लोकप्रियता के चक्कर में सम्मान डूब जाएगा

अगर कलम को हथियार बनाकर तोड़ोगे सीमाएं, तो न कानून बख्शेगा न समाज माफ़ करेगा—समझो पत्रकारिता जिम्मेदारी है, अधिकार नहीं।

काशीपुर(सुनील कोठारी)। पत्रकारिता की दुनिया में जब कलम को ज़िम्मेदारी और सच्चाई का आईना कहा जाता है, तो उसके पीछे एक लंबा इतिहास, संघर्ष और समर्पण की कहानियाँ छिपी होती हैं। यह केवल एक पेशा नहीं, बल्कि एक मिशन है, जिसे हमारे बुजुर्ग पत्रकारों ने अपने खून-पसीने से सींचा है। लेकिन दुर्भाग्यवश आज कुछ लोग इस पवित्र कार्य को सस्ती लोकप्रियता की सीढ़ी बनाकर अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति में लग गए हैं। प्रेस की सीमाओं को लांघकर, नियमों को ताक पर रखकर और नैतिकता की धज्जियां उड़ाकर जब पत्रकारिता को स्वार्थ की हवस में घसीटा जाता है, तो ना केवल यह पेशा कलंकित होता है, बल्कि समाज का वह विश्वास भी डगमगाने लगता है जो वर्षों की मेहनत से बना है। लोकतंत्र का यह चौथा स्तंभ अगर डगमगाएगा तो पूरा समाज अस्थिर हो जाएगा। इसलिए यह समय है आत्मनिरीक्षण का, मर्यादा के संकल्प का और पत्रकारिता की गरिमा की पुनः स्थापना का।

आज के दौर में जब डिजिटल प्लेटफॉर्म्स की भरमार है और सूचना की बाढ़ हर ओर बह रही है, उस समय में यह और भी आवश्यक हो जाता है कि पत्रकार अपनी सीमाओं का गहनता से पालन करें। किसी आईएएस अधिकारी या वरिष्ठ प्रशासक के आवास में अनधिकृत रूप से प्रवेश कर रिपोर्टिंग करना न केवल प्रेस मान्यताओं का उल्लंघन है, बल्कि यह गंभीर कानूनी अपराध भी बन जाता है। इसी तरह, किसी महिला की तस्वीर या वीडियो को उसकी अनुमति के बिना प्रसारित करना न केवल अनैतिक है बल्कि इसके दंडात्मक प्रावधान भी हैं। निजी संपत्ति में घुसकर फोटो या वीडियो लेना कानून की नजर में सीधा अपराध है और पत्रकारिता के उसूलों पर करारा प्रहार भी। व्हाट्सएप या अन्य निजी संवाद माध्यमों से मिले गोपनीय दस्तावेजों को सार्वजनिक करना प्रेस आचार संहिता के साथ खिलवाड़ है और कॉल रिकॉर्डिंग कर उसका गलत इस्तेमाल करना मानवाधिकारों के हनन की श्रेणी में आता है। इन सभी कृत्यों पर अब नज़र रखी जा रही है, और यदि कोई पत्रकार ऐसा करते पकड़ा गया, तो न केवल उनके विरुद्ध केंद्रीय मीडिया ब्यूरो या ज़िला पत्रकार सुरक्षा समिति में शिकायत दर्ज होगी, बल्कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और ज़िला सूचना अधिकारी कार्यालय भी उनके विरुद्ध कार्रवाई के लिए सक्षम हैं।

जिस समाज ने पत्रकार को अपने विचारों की आवाज़ दी, उसे आईना माना और जिस देश में पत्रकारिता को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सबसे सशक्त माध्यम समझा गया, वहां अगर पत्रकार अपने ही पेशे की मर्यादा लांघते दिखें तो यह केवल समाज का नहीं, पूरे लोकतंत्र का अपमान है। जब कोई पत्रकार निजी स्वार्थ या प्रभावशाली ताकतों के इशारे पर कलम चलाता है, तो वह उस भरोसे के साथ विश्वासघात करता है जो जनता ने उस पर जताया था। पत्रकार का धर्म है निष्पक्षता, ईमानदारी और जनता के प्रति पूर्ण जवाबदेही। उसे खबर नहीं, सच दिखाना होता है; वह खबर नहीं बनाता, खबर को उजागर करता है। किसी के घर में कैमरा लेकर घुस जाना, या सोशल मीडिया पर गोपनीय रिकॉर्डिंग डाल देना, यह न पत्रकारिता है और न ही नायकत्व। ये केवल अवसरवादी हरकतें हैं जो पत्रकारिता को धीरे-धीरे दलदल में धकेल रही हैं।

हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि पत्रकारिता कोई विरासत में मिली चीज़ नहीं है, बल्कि यह संघर्षों और बलिदानों से मिली अमूल्य धरोहर है। हमारे पूर्वज पत्रकारों ने जब सत्ता और अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाई थी, तो उनके पास कोई कवच नहीं था—सिर्फ एक कलम थी और जनता का विश्वास। उन्होंने तानाशाही के साये में सच्चाई की मशाल जलाए रखी, जेल गए, पीटे गए और कई तो शहीद भी हो गए। आज हम उसी परंपरा के वाहक हैं, और हमारी एक गलती उन पुण्य आत्माओं के त्याग को कलंकित कर सकती है। इसलिए यह ज़रूरी है कि हम पत्रकारिता को एक जिम्मेदारी की तरह लें, न कि लोकप्रियता की होड़ में छलांग लगाने का जरिया बनाएं। खबर को बेचने का नहीं, समझने और समाज को समझाने का माध्यम बनाएं। यही हमारे पूर्वजों की सच्ची श्रद्धांजलि होगी और हमारी असली पहचान।

भारत में पत्रकारिता को दिशा देने के लिए कई संवैधानिक और कानूनी प्रावधान मौजूद हैं, जिन्हें नजरअंदाज़ करना अब खतरनाक साबित हो सकता है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a) सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है, लेकिन यह अनुच्छेद 19(2) के अंतर्गत कुछ तार्किक और न्यायोचित सीमाओं से बंधा हुआ है। पत्रकारों को इन सीमाओं का पालन करना अनिवार्य है। भारतीय दंड संहिता के तहत मानहानि, झूठी खबरें और आपत्तिजनक सामग्री अपराध की श्रेणी में आती हैं। सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 के अंतर्गत साइबर अपराधों और अफवाह फैलाने वालों के विरुद्ध सख्त प्रावधान हैं। मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी पत्रकार किसी की निजता या मूल अधिकारों का उल्लंघन न करे। यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम (POCSO), 2012 के अंतर्गत नाबालिगों की पहचान उजागर करना पूरी तरह गैरकानूनी है, और आपराधिक प्रक्रिया संहिता यह स्पष्ट करती है कि न्यायिक प्रक्रिया या बंद कमरे की सुनवाई का खुलासा प्रेस के लिए वर्जित है।

एक निष्कलंक, नैतिक और समाजहितकारी पत्रकारिता ही सच्ची पत्रकारिता की पहचान है। प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के अनुसार पत्रकारों को सच्चाई, न्याय और स्वतंत्रता के सिद्धांतों का पालन करना ही होगा। प्रेस को स्वतंत्र रहना चाहिए, लेकिन वह स्वतंत्रता समाज के प्रति अपनी जवाबदेही से अलग नहीं हो सकती। पत्रकार का असली सम्मान उसकी निष्पक्षता में है, और उसका सबसे बड़ा संसाधन समाज का विश्वास है। यदि वह अपने इस पूंजी को खो बैठा, तो उसके पास कुछ नहीं बचेगा। इसलिए जरूरी है कि खबरें लिखते समय हम अपनी आत्मा की आवाज़ सुनें, न कि टीआरपी या लाइक्स की गूंज। पत्रकार का काम लोगों को दिशा देना है, भ्रमित करना नहीं। वही पत्रकार सच्चा है जो सच के साथ खड़ा हो, न कि स्वार्थों के नीचे दबा हो। यही पत्रकारिता की असली कसौटी है, और यही इसकी सबसे बड़ी विजय भी।

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